SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य प्रव आमभन्द आचार्य प्रवर अभिनंदन [अनुशासन का अर्थ, उसका महत्त्व, लाभ, श्रद्धा, विनय तथा उनका जीवन विकास में उपयोग आदि विषयों का निदर्शन] २ जीवन विकास का प्रथम सोपान : अनुशासन धर्मशास्त्र आत्मा की उन्नति के लिये मार्गदर्शन करते हैं। जब तक मनुष्य शास्त्र श्रवण या उनका पठन न करें, वह अज्ञान के अंधकार में भटकता रहता है । कहा भी है सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यंध एव सः । - शास्त्र सबके लिये नेत्र के समान हैं, जिसे शास्त्र का ज्ञान नहीं वह अंधा है । प्राय इसका यही है कि मानव जब तक शास्त्रों का पठन-पाठन न करे तब तक वह जीवअजीव, पुण्य-पाप, आस्रव संवर, बंध मोक्ष या आत्मा-परमात्मा, किसी विषय में नहीं जान सकता तथा इनमें रही हुई विभिन्नताओं को नहीं समझ सकता । इसलिए आवश्यक है कि प्रत्येक आत्मार्थी शास्त्रज्ञान में रुचि रखे और उनमें दी गई शिक्षाओं को आत्मसात् करके जीवन में उतारने का प्रयत्न करे । अनुशासन का अर्थ शास्त्र मनुष्य को पहली शिक्षा देते हैं- अनुशासन में रहना । अनुशासन का अर्थ है - शासन अर्थात् आज्ञा और अनु का अर्थ है अनुसार चलना । तो अनुशासन में रहना अर्थात् आज्ञा के अनुसार चलना या आज्ञा का पालन करना । अनुशासन शब्द में केवल पांच अक्षर हैं, किन्तु ये अपने आप में बड़ा महत्त्व छिपाये हुए हैं । संसारनीति, राजनीति और धर्मनीति सभी में इनकी बड़ी आवश्यकता रहती है। इनके बिना कहीं भी काम नहीं चलता । Jain Education International संसारनीति में अगर पुत्र माता-पिता व गुरुजनों की आज्ञा का पालन नहीं करता है तो वह कुपुत्र कहलाता है । राजनीति में शासन व्यवस्था के अंतर्गत काम करने वाले कर्मचारी राजा अथवा सरकार की आज्ञा का पालन नहीं करते तो गद्दार कहलाते हैं तथा धर्मनीति में वीतराग के वचनों और धर्माचार्यों की आज्ञा का पालन नहीं करने वाले नास्तिक या मिथ्यात्वी साबित होते हैं और अंत में उनकी क्या दशा होती है— जहा सुणी पुई कण्णी निक्कसिज्जइ सव्वसो । एवं दुस्सील पडिणीए मुहरो निक्कसिज्जइ ॥ — उत्तराध्ययन सूत्र, अ. १, गा. ४ जिस प्रकार सड़े कान वाली कुतिया प्रत्येक स्थान से खदेड़कर निकाल दी जाती है, उसी प्रकार अविनीत और अनुशासन में न रहने वाले शिष्य भी सभी जगह से निकाल दिये जाते हैं । अतः आवश्यक है अगुसासिओ न कुप्पेज्जा खंति सेविज्ज पण्डिए । For Private & Personal Use Only — उत्तराध्ययन सूत्र, अ. १, गा. ε www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy