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________________ उपदेश-श्रवण का पात्र १४७ Rel PLL 'ऐसी बात तू मत कर ! मैंने अपनी जिन्दगी में कभी भी दर्शन-वर्शन नहीं किये, अब बुढ़ापे में अपनी रीति नहीं तोड़गी और फिर भगवान के दर्शन क्या करना है ? अपने जैसे वे भी मनुष्य हैं, जैसी रोटी हम खाते हैं वैसी ही वे भी खाते हैं । फरक कौनसा है ? मैं तो कदापि नहीं जाऊँगी।' दादी की बात सुनकर श्रेणिक को कुछ निराशा हुई, पर वे चतुर थे। सोचा-'किसी और उपाय से दर्शन करवा दूंगा।' कुछ दिन बाद जब दादी वह बात भूल गईं तो श्रेणिक महाराज ने एक दिन उनसे हवाखोरी के लिए चलने को कहा। बहत मना करने पर भी पोते का आग्रह देखकर वे रथ पर सवार हो हवाखोरी के लिए निकलीं। इधर श्रेणिक को अपना कार्य सिद्ध करना था अतः वे रथ को सीधे भगवान के समवशरण की ओर ले गये तथा जब दूर से ही भगवान दिखाई दिये तो दादी से बोले 'दादी जी ! वे सामने भगवान विराजे हए हैं, देखो।' पर इतना कहते ही देखते क्या है कि दादी ने अपनी रीति की रक्षा करने के लिए तकुए से अपनी दोनों आँखें फोड़ ली हैं। अब समस्या आई कपिला दासी के हाथ से दान दिलवाने की। श्रेणिक को तो नरक की चिन्ता सता रही थी। अतः दादी के क्रियाकर्मादि से निपटकर एक दिन उन्होंने कपिला दासी को अपने समक्ष बुलवाया और उससे दान देने के लिए कहा। 'महाराज ! मैं तो दान नहीं दे सकती।' कपिला ने दो टूक उत्तर दे दिया। राजा ने क्रोध करते हुए पुनः कहा-'क्यों नहीं दोगी दान ? तुझे कोई अपने पास से तो देना नहीं है। मेरा धन है, उसे देने में तेरा क्या जाता है ?' 'कुछ भी हो महाराज ! चाहे आप मुझे जान से मरवा डालें, पर मैं दान नहीं दूंगी।' श्रेणिक बड़े विचार में पड़ गये । सोचने लगे-'क्रोध में आकर दासी को मरवा देना तो सहज है पर उससे क्या होगा ? मेरा नरक का वध तो छूटेगा नहीं, वह तो इसके हाथ से दान देने पर ही छूट सकता है।' आखिर एक उपाय उन्होंने खोजा। कपिला के हाथ में लकड़ी का एक लम्बा चाटू बाँध दिया गया और उससे कहा—'यह दान तो तेरे हाथ का नहीं है । अब इस चाटू से दे दो।' कपिला कम धूर्त नहीं थी। देते हुए बोली-'यह दान मैं नहीं दे रही हूँ, राजा का चाटू दे रहा है।' श्रेणिक मस्तक पर हाथ रखकर बैठ गये और सोचने लगे---किसी ने ठीक ही कहा है सहस बार डुबकी दई मुक्ता लगी न हाथ । सागर को क्या दोष है, बरे हमारे भाग ।। तो बन्धुओ आप अभव्य प्राणी के लक्ष्य भली-भाँति समझ गये होंगे कि कुत्ते की पूंछ के समान उनका हृदय लाख प्रयत्न करने पर भी अशुभ भावनाओं से रहित नहीं हो सकता। अन्यथा श्रेणिक महाराज की दादी दूर से ही भगवान के दर्शन कर लेती तो क्या बिगड़ जाता ? और कपिला दासी राजा का धन अपने हाथ से दान कर देती तो उसकी कौन-सी हानि हो जाती? पर ऐसा होता कैसे ? फिर अभव्य को अभव्य कहने की आवश्यकता क्या थी? थोड़ा-सा प्रयत्न करने पर ही वह भव्य सावित हो सकता था, पर ऐसा कदापि होता नहीं है, यह समझकर हमें इन समस्त उदाहरणों से शिक्षा लेनी है। हमें प्रतिक्षण अपनी आत्मा का निरीक्षण करते हुए उसे दोषरहित बनाना है तथा जिन-वचनों पर दृढ़ आस्था रखते हुए सन्त-महापुरुषों और गुरुओं के उपदेशों को आत्मसात् करते हुए उन्हें अमल में लाना है। तभी हम भगवान के कथनानुसार एकान्त सुख-रूप मोक्ष की ओर बढ़ सकेंगे। ANDI वया جی مهمه. . هر حيعدي في دي فيه هي در هر گروهی این في قولی به ، ما في غرام حر حمر حامي عمر ا علحی فرمان رفته بود و وی ۹۰ مرميع مع علمیعاد معنی आचार PrAYA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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