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________________ " आचार्य प्रवर आता. आमद आज्ञा आद ग्रन्थ १३४ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व (७) घनों को चोटें खाकर ही देवत्व प्राप्त होता है । घणा चे घाव सो सांवें, देश्ववा देव पद पावे ॥ (८) मनुष्य जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। 2 ) संचिता सारखे पड़े त्याच्या हाता । फारसे मागता हरी नये । ( जितना भाग्य में होगा उसके अनुसार ही माल पल्ले पड़ेगा । माँगने से भी अधिक मिलना संभव नहीं ।) vio (१०) देवता देता है, पर कर्म वापस ले लेता है । (११) बिना प्रयत्न और पुरुषार्थ के भाग्य फलता-फूलता नहीं है । ( एवं पुरुषकारेण बिना देवं न सिद्धयति ) (१२) शरीरमाद्यं खलु धर्म-साधनम् । ( धर्म की साधना करने के लिए शरीर ही माध्यम है ।) (१३) हरिये न हिम्मत बिसारिये न राम । (१४) पृथिव्यां प्रवरं हि दानम् । (इस पृथ्वी पर दान ही सर्वोत्तम कर्म है ।) Jain Education International (१५) साधु भूखा भाव का । (१६) इच्छा का त्याग करना ही तपस्या है । ( इच्छा निरोधस्तपः -- तत्त्वार्थ सूत्र ) ( १७ ) भावना भवनाशिनी (१८) जिह्वा केवल तीन इंच लम्बी होती है किन्तु वह छः फुट वाले आदमी को कत्ल करवा सकती है । (१६) अविद्या जीवनं शून्यम् । ( जो जीवन विद्या से रहित है, वह शून्य के समान है ।) (२०) पढमं नाणं तओ दया--- दशवैकालिक सूत्र ( पहले ज्ञान प्राप्त करो, तत्पश्चात् आचरण में उतारो ) (२१) गुणा: सर्वत्र पूज्यन्ते । ( गुणों का ही सर्वत्र सम्मान होता है ।) आदि-आदि । ( यह पृष्ठ संख्या आनन्द प्रवचन भाग प्रथम की है ।) इन प्रवचनों की नवीं विशेषता है अन्धविश्वासों का विरोध | - पृ० ५८ - पृ० ७१ -पृ० ६५ For Private & Personal Use Only पृ० १५ पृ० ६५ पृ० १०७ -पृ० १२० - पृ० १४३ - पृ० १५६ - पृ० १६० ---पृ० १७१ - पृ० १६० निस्सन्देह आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि जैसे महान सन्तों ने ही तथाकथित विचारकों द्वारा स्थापित - कल्पित जाति-भेद की भर्त्सना की है । गोस्वामी तुलसीदास ने भी हरि-भक्ति में जाति-पांति की भावना को सारहीन बताया है- - रामचरितमानस - पृ० १९२ - पृ० ३२२ जाति-पांति पूछे नहिं कोई। हरि को भजं सो हरि का होई । परमपूज्य आनन्दऋषि कहते हैं कि इसका कारण यही है कि जैनधर्म ने धर्म की यह जो परिभाषा दी है, उसके अनुसार धर्म किसी देश, काल या जाति के लिये नहीं है, यह तो सार्वदेशिक और सार्वजनिक धर्म है । — आनन्द प्रवचन भाग १ पृष्ठ १० आचार्य श्री तुलसी ने भी यही कहा है कि धर्म को जाति या कौम में मत बांटिये । जातियाँ सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर अवस्थित हैं । धर्म जीवन परिमार्जन या आत्म शोधन की प्रक्रिया वहाँ हिन्दू और मुसलमान का भेद नहीं है । धर्म वह शाश्वत तत्त्व है जिसका अनुगमन करने का प्राणि 1 www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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