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________________ आचार्यदेव श्री आनन्दऋषि का प्रवचन-विश्लेषण १३३ CHORIRL साधारण विषय के प्रतिपादन में छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग किया गया है, लेकिन गहन सत्य की विवेचना में लम्बे-लम्बे वाक्यों को अपनाते हुए आचार्यश्री ने तत्सम शब्दों को उपयुक्त माना है। यों तो आपके मानस में विशेष भाषा के विशिष्ट शब्दों के प्रति किसी प्रकार का आग्रह नहीं है। अपनी भावना को स्पष्ट करने के लिए पूज्यश्री ने प्रायः समस्त प्रचलित एवं व्यावहारिक शब्दों को ग्रहण किया है एवं मुक्तियों को भी अपनाया है। कई भाषाओं के प्रकाण्ड पंडित होने के कारण आचार्यप्रवर की शब्दावली बड़ी विस्तृत और व्यापक है। परिणामस्वरूप आपकी भावभरी चेतावनी पर्याप्त रूप में स्नेहिल, बोधपरक, प्रभावक एवं लोक-प्रिय बन गई है। जिस प्रकार आपके चिन्तन-मनन में समन्वयात्मक दृष्टिकोण विद्यमान है इसी प्रकार भाषाशैली में भी आप बड़े उदार और असीमित हैं। विश्व की विराट प्रतिमा में आपका विराट् व्यक्तित्व इस प्रकार समाहित हो गया है जिस प्रकार मक्खन के कण दूध की सफेदी में एकाकार हुए हैं। लोकोक्तियों का यथावसर प्रयोग करके पूज्य ऋषि ने अपने भाषा-विषयक दृष्टि-कोण को अत्यधिक जन-प्रिय बनाया है। निम्नलिखित वाक्य-समूह उपर्युक्त कथन की पुष्टि में पर्याप्त हैं :-- (१) जो व्यक्ति आत्मिक सौन्दर्य का महत्त्व समझ लेता है वह संयम और नियम से अपने मन को आबद्ध करता है। (२) आज मानव के जीवन में संयम का अभाव है। उसका जीवन पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध में पड़कर विलासिता में बहता है। (१० ७) (३) इन्द्र जब देव-सभा में सद्गुणी व्यक्तियों की प्रशंसा करते हैं तो उपस्थित देवों में अनेक मिथ्यादृष्टि देव ऐसे भी होते हैं, जिन्हें संसारी प्राणियों की प्रशंसा सह्य नहीं होती। वे सोचते हैं-देवसभा में देवताओं की तारीफ न करके अन्न के कीड़े मनुष्यों की, अल्पायु प्राणियों की तारीफ क्यों?"-- इस प्रकार के लम्बे-लम्बे वाक्य विषय की गहन अनुभूति के परिचायक हैं। अभिप्राय, दोष-दृष्टि, शंकालु, परिष्कृत, विद्वत जनों, अशिक्षित, असाँकरी समक्ष, वृतियाँ, शंकित, परिणाम, आदर, ईश-स्मरण, गौरवरक्षा आदि (पृष्ठ ७६), तत्सम शब्दों के साथ-साथ छल-फरेव, रिश्वत, नींव, उम्र, न्यौछावर (पृ० ५१), फूल, खुशबू, नासमझी, चाँद, कागज आदि (पृ० ५६), झगड़ा टेढ़े-मेढ़े, चील, चोंच, तकलीफ, काँटे, तकलीफ, महसूस, आराम, दाना-पानी, मालिश, हवाखोरी, सवारी, वजन, बोझा 'पीठ खेल' (पृ० ११४-११५) आदि शब्दों को भी आचार्यप्रवर ने बड़ी उदारता से अपनाते हए अपनी भाषा-सम्बन्धी भद्रता का पूर्ण परिचय दिया है । अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, मराठी आदि विभिन्न भाषा बोलियों के उद्धरणों का प्रयोग इस सत्य को प्रमाणित करता है कि आचार्यप्रवर बह-भाषाविद हैं, बहन हैं, सतत विचारक हैं, बहश्रत हैं एवं संत-समागम के एक आलोकित दीप हैं। (यह पृ० संख्या आनन्द प्रवचन भाग प्रथम की है)। प्रवचनों में कतिपय प्रयुक्त लोकोक्तियाँ इस प्रकार हैं(१) बुरा करने वाले का भी भला किया जाय । पृ० ३६ (२) संत कभी संतई नहीं छोड़ता। पृ० ३६ (३) सत्संगति दुर्लभ संसारा। पृ० ४२ (४) सत्संगति से नीच से भी नीच महान बन जाता है। (५) चित्त की वृत्तियों को रोकना अत्यन्त कठिन काम है। (दुष्करं चित्तरोधनम्) पृ० ५३ (६) जब हम जागें तभी सबेरा। पृ० ५६ पृ० ४२ manmaduadavuARIANASAAMAIDANALASADNIRANJamesreadmoreadsARAMANADAANAAKAIRANJAIANRAJAMAADAINA आचारप्रवर अभिभाचार्यप्रवर अभि श्रीआनन्द श्रीआनन्द अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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