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श्रीचन्द्र जैन M.A., L.L.B. [जैन कथासाहित्य एवं काव्यसाहित्य के विशेष अनुसंधाता, समीक्षक तथा लेखक ।
संप्रति-सान्दीपनि स्नातकोत्तर महाविद्यालय, उज्जैन में प्राचार्य]
एक चिन्तनशील वाग्मी आचार्यदेव आनन्दऋषि
का
प्रवचन-विश्लेषण
भारतीय ऋषि-परम्परा में महामहिम आचार्यदेव श्री आनन्द का एक विशिष्ट स्थान है । निरन्तर साधना-रत होने के कारण आपकी प्रतिभा विकसित हुई है, एक अनुपम तेज आपके ललाट पर पूर्णरूपेण आलोकित हो रहा है, भगवती सरस्वती आपकी वाणी में अवतरित हुई है, समताभाव की अन्विति के कारण यह विराट विश्व आपका भक्त बन चुका है एवं मानस की उदारता ने आपके चिन्तन-मनन को इतना व्यापक बना दिया है कि न उसमें वर्गभेद जीवित है, न विशिष्ट धर्म-कर्म के प्रति अनुराग है और न किसी विशेष जाति के लिए अनुरक्ति है। सर्वत्र मानवता के मधुर स्वर आपके उपदेशों में प्रतिध्वनित हैं । सन्त के समस्त लक्षण आपकी परिचर्या में एकाकार हो गए हैं। फलतः जन-हितकारी शब्द आपको प्रिय हैं। भले ही वे किसी विशिष्ट सम्प्रदाय के आचार्य हों अथवा किसी धर्म के गुरु कहे गए हों किन्तु समस्त धर्मों का समन्वयात्मक रूप श्री परमपूज्य आनन्द की वाणी में इतना प्रखर है कि जनता अपने अन्धविश्वासों की रूढ़ि-गत परम्परा को भूलकर आपके उपदेशों को सुनने के लिए निरन्तर आतुर रहती है तथा इन उपदेशों का श्रवण कर वह आत्म-निरीक्षण के हेतु प्रयास करने लगती है।
इस धरातल पर आचार्य देव प्राणिमात्र के हितार्थ ही अवतरित हुए हैं। माना कि आपके प्रवचनों में कृत्रिम तूफानी जोश नहीं है और न उत्तेजक शब्द-जाल है, लेकिन इनमें (प्रवचनों में) भावना की गहन स्थिरता है, विचारों की अलौकिक निर्मलता है और कथन-शैली में भद्रता है जो बहुत कम साधुओं में परिलक्षित होती है ।
महामहिम के सहज स्वरूप को देखकर और उनके अदम्य उत्साह से परिपूर्ण प्रवचनों को आत्मसात करने के उपरान्त कवि नीरज की ये पंक्तियाँ सहसा मानस में गूंजने लगती हैं
या
ह
हम नहीं हिन्दू-मुसलमां, हम नहीं शेखो-विरहमन । हम नहीं काजी-पुरोहित, हम नहीं हैं राम-रहीमन । भेद से आगे खड़े हम, फर्क से अनजान हैं हम । प्यार है मजहब हमारा, और बस इन्सान हैं हम ।
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