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________________ जीवनस्पर्शी प्रवक्ता आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषि १२७ ६ व्रतों के ग्रहण पर जोर देते हुए वे कहते हैं-१"व्रतों का ग्रहण करना अपने आपको एक सीमा में बाँध लेना होता है। जिसका आपको उल्लंघन नहीं करना चाहिए। तभी आपका जीवन मर्यादित, सन्तुलित और सुन्दर बन सकता है। नदी जब तक अपने दोनों किनारों के बीच में वहती है, तभी तक उसकी महत्ता है। अगर वह अपनी सीमा अर्थात् अपने किनारों को तोड़कर निकलती है तो लोग उससे भयभीत होकर यत्र-तत्र भागने लगते हैं।..." श्रद्धा और बुद्धि के अन्तर को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं-"श्रद्धा हृदय को अमूल्य वस्तु है और बुद्धि मस्तिष्क की। श्रद्धा में विश्वास होता है, बुद्धि में तर्क । अगर ये दोनों टकराते हैं तो उसका परिणाम कभी-कभी बड़ा भयंकर रूप ले लेता है। भौतिक ज्ञान की प्राप्ति करने वाले तथा अनेक पोथियाँ पढ़कर जो व्यक्ति जिन-वचनों में अविश्वास करता है तथा आत्मा के सच्चे स्वरूप और उसके सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूपी गुणों को लेकर कुतर्क करता रहता है, वह हृदय की आस्था को खो बैठता है तथा मुक्ति के मार्ग से भ्रष्ट होकर अधोगति की ओर प्रयाण करता है। श्रद्धा एक-एक कंकर को शंकर बनाने की क्षमता रखती है और तर्क शंकर को भी कंकर बनाकर छोड़ता है। जिसके हृदय में श्रद्धा होती है उसकी दृष्टि समदृष्टि बन जाती है।" इस प्रकार आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज के प्रवचन वर्तमान युग में प्रकाशस्तम्भ की तरह जीवनयात्री को स्पष्ट दिशा-दर्शन देते हैं। वे अन्धकार में भटकने से बचाते हैं और जीवन में मच्चे आनन्द की प्राप्ति करा सकते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। श्रद्धा के सुमन - उपप्रवर्तक स्वामी श्री व्रजलालजी [शासनसेवी वयोवृद्ध संत] moM आचार्यसम्राट श्री आनन्द ऋषि जी महाराज एक अभिनन्दनीय उत्तम पुरुष हैं। उनका अभिनन्दन करना समयोचित प्रसंग है। आचार्यश्री जी के दर्शन जब भी मैंने किए, उन्हें सदा सौम्य व सुमधुर पाया। आचार्य श्री जी श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के सुशासक नेता हैं-यह संघ के लिए गौरव की बात है। उनकी सेवा में मेरे श्रद्धा के सुमन सादर समर्पित हैं। UPL १. आनन्द प्रवचन भा० ३ पृ० ३६२ २. , पृ० ३५७ PRANARDANARAvinaAAAAAAJAAAAAAAAA A AAACADRDABARJAADAAN AIMAAVALI Primmmwwwimm iATMAir-.-.-.Vtomorrrrr: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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