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________________ 0 मदनमुनि 'पथिक' जैनसिद्धान्ताचार्य [कवि एवं मधुर गायक ] श्रद्धा के सुमन । GRA डा भारतवर्ष महान देश है। यह देश ऋषियों, मुनियों, कवियों, दार्शनिकों और सन्तों का देश है। इस पवित्र भू-भाग पर जन्म लेने के लिए देवता भी लालायित रहते हैं। सचमुच इस पवित्र और महान् देश में जन्म लेना किसी भी प्राणी के लिए एक पावन वरदान है, अमूल्य उपलब्धि है। फिर इस देश में एक संत के रूप में विचरण करना और एक आचार्य के रूप में जनता जनार्दन को सदुपदेश देने का अवसर विरले लोगों को ही अपने पूर्व संचित पुण्यों के फल स्वरूप ही प्राप्त होता है। भारतीय संस्कृति में संत जीवन को एक आदर्श रूप में माना जाता है। संयम और संस्कृति की धाराओं में प्रवहमान संत जीवन व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं समस्त मानवता के लिए वरदान रूप सिद्ध होता है। परम आदरणीय, पंडित-रत्न, चारित्र-चूडामणि, बालब्रह्मचारी, श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के द्वितीय पट्टधर पूज्य आचार्य सम्राट श्री १००८ श्री आनन्दऋषि जी महाराज साहब एक अगणित एवं असीमित सद्गुणों की साकार प्रतिमा है। वे मूर्तिमन्त ज्ञान और गुणों के आगार हैं, अक्षय कोष हैं । आपका हृदय नवनीत के समान कोमल, शुद्ध एवं शुभ्र है । जिस प्रकार से आप ज्ञान के अक्षय भण्डार हैं, उसी प्रकार से आपके जीवन में विचारों के साथ-साथ आचार की भी दृढ़ निष्ठा है । ज्ञान एवं आचार का यह मणि-कांचन संयोग शताब्दियों में किसी-किसी व्यक्ति, किसी-किसी महापुरुष के जीवन में ही देखने को मिलता है। आपने अपनी योग्यता, अनुभव, कर्म-कुशलता एवं अद्भुत सहनशीलता के साथ समाज का समुचित मार्गदर्शन किया है, समाज को सुगठित किया है और उसे धर्म मार्ग पर अग्रसर किया है। इससे संघ का अपूर्व हित हुआ है। इतना ही नहीं, आपके तेजस्वी व्यक्तित्व ने समूचे राष्ट्र के गौरव को प्रकाशित किया है तथा राष्ट्र एवं विश्व को अभूतपूर्व आध्यात्मिक निधि प्रदान की है। आपके जीवन की विशेषताओं का वर्णन कर पाना अशक्य ही है। किन्तु आपने इतने उच्च पद पर आसीन रहते हुए भी जिस विनम्रता के साथ आचरण किया है उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जानी चाहिए। अहंकार का लेश-मात्र भी कभी आपके उज्ज्वल चरित्र में देखने को नहीं मिला। श्रमणसंघ की एकता आपके जीवन का मूल मंत्र है। अधिकार की लालसा से आपका दूर का भी सम्बन्ध नहीं । इसी कारण आपने सदैव श्रमणसंघ की एकता के लिए जी तोड़ प्रयत्न किया है। उसी एकता को स्थिर रखने हेतु आपने अपने पद का विलीनीकरण भी किया, किन्तु आपकी चारित्रगरिमा के कारण पुनः संघ ने आपको संघ संचालन का भार सौंपा । तब से अब तक आप अद्भुत योग्यता से संघ को मार्ग दर्शन करा रहे हैं तथा अनेक प्रकार के विघ्नों को बड़ी सरलता एवं कौशल पूर्वक पार करते चले जा रहे हैं। ऐसे चारित्रवान, तेजस्वी, गुणों के आकर पूज्य आचार्य सम्राट के चरणों में अपनी श्रद्धा के ये सुमन भेंट करते हुए किसे प्रसन्नता न होगी ? Mail - आपाय प्रवर अभिआपाय प्रवर अभय श्रीआनन्द श्रीआनन्द अन्य ramanar marrrrrrrrraiwrnirm.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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