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________________ अरविन्द की योग-साधना ७७ योगाभ्यास सम्भव नहीं है । यह शान्ति दो प्रकार से प्राप्त की जा सकती है । सक्रिय रूप से मस्तिष्क को खाली करके या तटस्थरूप के मस्तिष्क में चलने वाली क्रिया का मात्र द्रष्टा रहते हुए। कठिन प्रतीत होने वाले इन कार्यों की कठिनाई प्रकृति को न समझने के कारण और बढ़ जाती है। नीरवता प्राप्त करने का सीधा मार्ग है जो भी मन में प्रवेश कर रहा है, उसे पकड़ कर बाहर फेंकना । यही पद्धति श्री अरविन्द ने लेले के साथ साधना करते हुए अपनाई थी। वे स्वयं लिखते हैं "इसके लिए मैं लेले का अत्यधिक ऋणी हैं कि उन्होंने इस सत्य का साक्षात्कार कराया। ध्यान के लिए बैठ जाओ, उन्होंने कहा, परन्तु कुछ भी सोचो नहीं, केवल अपने मन का निरीक्षण करो, तुम विचारों को उसके अन्दर आता देखोगे । ...."बस में बैठ गया और वैसा ही किया । क्षण भर में मेरा मन उच्च पर्वत शिखर के निर्वात आकाश की भाँति शांत हो गया और तब मैंने देखा एक विचार, फिर दूसरा विचार बाहर से स्पष्ट रूप से आ रहा है । इसके पूर्व कि वे मेरे मस्तिष्क में घुसकर उसे अपने अधिकार में कर सकें मैंने इन्हें झटक कर दूर फेंक दिया और तीन दिन में ही उनसे मुक्त हो गया। उसी क्षण सिद्धान्ततः मेरे अन्दर का मनोमय पुरुष एक स्वतन्त्र प्रज्ञा किंवा विराट् मन बन गया जो विचारों के कारखाने के एक मजदूर की भाँति वैयक्तिक विचार के संकुचित घेरे में बँधा नहीं था बल्कि सत्ता के सैकड़ों स्तरों से ज्ञान ग्रहण करने लगा।"१० खालीपन क्या है ? मस्तिष्क के खालीपन का मनोवैज्ञानिक स्वरूप क्या है ? उसका मूल तत्त्व क्या है ? इस विषय में वे कहते हैं-"मानसिक सत्ता का मूल पदार्थ एकदम शान्त है। कोई वस्तु उसे आन्दोलित नहीं कर सकती। विचार या वैचारिक क्रियाएँ जब उसमें प्रवेश करती हैं तो वैसा ही होता है मानो वायुहीन आकाश को पक्षी पार कर रहे हैं। यह उड़ता चला जाता है । कहीं कोई हलचल नहीं होती। कोई निशान नहीं पड़ता। मस्तिष्क का मूल ढाँचा ही इस प्रकार के तत्त्व से बना है जो शाश्वत और अक्षय शान्ति से निर्मित है। ऐसा मस्तिष्क जिसने यह नीरवता और शान्ति पा ली है, अपनी प्रक्रिया शुरू कर सकता है। यह प्रक्रिया निहायत सघन और शक्तिशाली होती है, तो भी मस्तिष्क अपनी मौलिक शान्ति बनाये रखता है।" मस्तिष्क को नीरव व शान्त बनाने की इस प्रक्रिया से अरविन्दीय योग-साधना का प्रारम्भ होता है। इस शान्ति के लिए प्रयत्न आवश्यक है क्योंकि अधिकांश लोग अशान्त जीवन के इतने अभ्यस्त होते हैं कि यह शान्ति उन्हें भयभीत करने लगती है। उसे एक ठोस और व्यापक आधार देने के लिए आवश्यक है कि यह प्राणिक व शारीरिक स्तरों तक भी उतरे और सम्पूर्ण सत्ता को सराबोर कर दे। किन्तु यह दृष्टव्य है कि शान्ति सहजरूप से उपलब्ध हो जाती है, ऐसा नहीं है और यह भी नहीं कि एक बार उपलब्ध हो जाये तो सदैव बनी रहे। यह सतत् प्रयत्न की प्रक्रिया है। मस्तिष्क के खालीपन का अर्थ शून्यता नहीं वरन् नीरवता और शान्ति है। नीरवता का अर्थ जीवन से निष्क्रिय होना नहीं है वरन् एक महत्तर चेतना को हस्तगत करना है। शान्त होने के लिए कार्य छोड़ने की आवश्यकता नहीं क्योंकि उसकी परीक्षा क्रियाशीलता में ही होती है। इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने एक शिष्य को लिखा- "पुराने योग में जीवन से अलग होकर ईश्वर को पाना चाहते हैं। अतः वे कहते हैं कर्म छोड़ दो। इस नये का उद्देश्य ईश्वर तक पहुँचना और वहाँ से प्राप्त पूर्णता को जीवन में उतारना है । अतः हमारे लिए कर्म अनिवार्य है।"११ चैत्य का उन्मीलन प्रार्थना, आकांक्षा, भक्ति, प्रेम, समर्पण आदि साधना के इस प्रथम चरण के मुख्य सहायक तत्त्व हैं। इनके साथ ही उस सब कुछ को, जो इस साधना में बाधक हैं, अस्वीकृत करना आवश्यक है। उदाहरण के तौर पर अहंकार उनकी साधना में सबसे बड़ा विघ्नकारी तत्त्व माना गया है, जो सभी बुराइयों की जड़ है। दूसरा चरण मस्तिष्क में ध्यान की एकाग्रता है जो बाद में सिर के ऊपर ध्यान में बदल जाती है। इसमें पहले शान्ति उतरती है अथवा शान्ति और शक्ति साथ-साथ । जब शान्ति भली-भाँति प्रतिष्ठित हो जाती है तब उच्चतर या दिव्य शक्ति अवतरित होकर हमारे भीतर क्रियाशील हो जाती है जिसे श्री अरविन्द चैत्यपुरुष का उन्मीलन कहते हैं। यह चैत्यपुरुष ईश्वरीय किरण या ज्योति है जिसके उदय के बाद मनुष्य का बौद्धिक अहं नष्ट हो जाता है इसलिए मस्तिष्क ईश्वरीय सत्य को अभिव्यक्त करने का साधन मात्र रह जाता है । जैसा कि पहले इंगित किया जा चुका है श्री अरविन्द-योग परमसत्ता के लिए निवेदित है, व्यक्तिगत मुक्ति हेतु नहीं अतः अहं-विसर्जन इस साधना की शाश्वत शर्त है। योगाभ्यासी को जानना चाहिए कि उसके भीतर सक्रिय शक्ति निर्वैयक्तिक और अनन्त है। जब उसे यह ज्ञात हो जाता है तो चैत्यपुरुष उसकी सभी क्रियाओं का संचालन अपने हाथ में लेता है। हृदय के पीछे एक झिल्ली में छिपे इस चैत्यपुरुष को आसानी से प्राप्त नहीं किया जा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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