SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 979
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • ७६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड सटीक है-"श्री अरविन्द के जीवन में योग शब्द का विकासक्रम महात्मा गांधी के जीवन में अहिंसा शब्द के गहराते व विस्तृत होते महत्व या गीता में 'यज्ञ' शब्द की महत्ता के समान था।'' योग-संश्लेषण का प्रयास (पूर्णयोग) योग और उसकी क्षमता में श्री अरविन्द का विश्वास दिव्य में उनके विश्वास की भाँति ही गहन था। अपने अनुभवों से पुष्ट इसी विश्वास के सहारे वे अपनी साधना के एक बाद एक विभिन्न स्तरों को पार करते रहे। पाण्डिचेरी में अपनी साधना के प्रथम चार वर्षों में अरविन्द ने अपने “योग-संश्लेषण" का अभ्यास किया और तकनीक का पूर्ण विकास किया जो पूर्णयोग या इन्टिग्रल योग के नाम से विख्यात है। इसमें वस्तुओं का पूर्ण परिदृश्य और परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली बातों का भव्य समन्वय दिखाई पड़ता है। अपनी कष्टसाध्य साधना के द्वारा एक पूर्ण व्यक्तित्व का विकास एवं स्वयं में विद्यमान आन्तरिक समरसता की खोज करके श्री अरविन्द ने विविध क्षेत्रों में सामंजस्य स्थापना की कुंजी खोज ली। उनकी साधना एक पूर्णतर अनुभव के लिए तीव्र खोज थी जो आत्मा व पदार्थ, पुरुष व प्रकृति के वास्तविक द्वय को संयुक्त करने व समरस बनाने की साध थी। उनकी साधना की अभिनव दिशा का आभास अपने अनुज वारीन को लिखे गये पत्र से होता है जो उन्होंने योग के क्षेत्र में उनके मार्गदर्शन हेतु लिखा था। उनके योग के साथ जुड़ा 'पूर्ण' विशेषण इस पत्र में व्यक्त उनके विचारों से भलीभांति समझा जा सकता है। प्राचीन योग पद्धतियों की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं पुराने योग में दोष यही था कि वह मन, बुद्धि को जानता, मन के भीतर ही अध्यात्म की अनुभूति पाकर सन्तुष्ट रहता, किन्तु मन खण्ड को ही आयत्त कर सकता है। वह अनन्त खण्ड को सम्पूर्ण नहीं पकड़ सकता। पुरातन योग प्रणालियाँ अध्यात्म व जीवन का सामंजस्य अथवा ऐक्य नहीं कर सकी, जगत को माया या अनित्य लीला कहकर उड़ा देती हैं। फल हुआ है जीवन-शक्ति का ह्रास और भारत की अवनति । श्री अरविन्द का योग उनके द्वारा अनुभूत चार सिद्धियों पर आधारित है-(१) देशकालातीत शान्त ब्रह्म की अनुभूति जो लेले के साथ साधना करते हुए प्राप्त हुई (२) विश्वचेतना अर्थात् सर्वत्र भगवान् दर्शन की अनुभूति जो अलीपुर जेल में प्राप्त हुई (३) परम सत् चेतना की अनुभूति जिसके दो पक्ष हैं—निष्क्रिय ब्रह्म और सक्रिय ब्रह्म (४) अतिमानसिक चैतन्य की अनुभूति जो सर्वोच्च सत् की अन्तिम उपलब्धि है। उनका योग उनकी इन चार अनुभूतियों के चौखम्बे पर आधारित है। इनकी सिद्धि की समस्त विधि और साधना, मार्ग और तरीके व खतरे उन्होंने स्पष्ट रूप से समझाये हैं। साधना का प्रस्थान बिन्दु योगी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त करने से बहुत पहले अपनी पत्नी मृणालिनी देवी को लिखे गये एक पत्र में श्री अरविन्द की तीव्र आध्यात्मिक उत्कण्ठा का प्रकटीकरण हुआ है जिसमें परमात्मा से साक्षात्कार की इच्छा के उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर छा जाने की बात भी कही गयी है। इस पत्र में उन्होंने योग-साधना को अपना लक्ष्यपूर्ति का एक मात्र अवलम्ब बताते हुए साधना के प्रारम्भिक स्तर व विकास के विभिन्न चरणों की चर्चा की है। उन्होंने बताया कि योग के क्षेत्र में इच्छुक व्यक्ति को प्रवेश कैसे करना चाहिए। प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण वे कहते हैं कि आकांक्षी को हार्दिक प्रार्थनाभाव से परमात्मा के प्रति समर्पण करना चाहिए। प्रभु का तभी अवतरण होगा और वे समस्त कमियों को दूर कर भक्त को आशीर्वाद देंगे। यह वस्तुतः पूर्णयोग में पहला पाठ है जिसका बाद में अरविन्द ने क्रमशः सविस्तार प्रतिपादन किया है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि प्रभु का द्वार प्रवेश के लिए इच्छुक किसी व्यक्ति के लिए बन्द नहीं है। गहन प्रार्थना के माध्यम से प्रभु के चरणों में स्वेच्छिक हार्दिक समर्पण भक्त को परमात्मा से मिलाने में समर्थ होगा। इस योगभूमि में प्रवेश पाने की पहली शर्त है अभीप्सा। क्या आपके भीतर इस सांसारिक जीवन से भिन्न एक उच्चतर जीवन की इच्छा है ? यदि अभीप्सा है तो ईमानदारी से उसके लिए प्रयत्न करना होगा और ये दोनों ईश्वर, गुरु व मार्ग में विश्वास होने पर ही फलदायी हो सकती हैं। क्योंकि मार्ग की बाधाएं डिगा सकती हैं इसलिए समर्पण भाव अत्यावश्यक है। ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण बाधाओं पर विजय दिला सकेगा। "इन चार कीलक और अर्गलाओं से सुसज्जित होकर आप निधड़क योगमार्ग में आगे बढ़ सकते हैं किन्तु साधना में गफलत आत्मघाती होती है, इसलिए निरन्तर सावधानी और चौकसी आवश्यक है।" प्रथम सोपान-मस्तिष्क की नीरवता और शान्ति श्री अरविन्द यह मानते हैं कि जब तक मानव-मन नीरव और शान्त नहीं होता तब तक किसी प्रकार का ०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy