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________________ आध्यात्मिक योग और प्राणशक्ति ६३ . - - - -- -- Rara आत्मबल । हमारा लक्ष्य है-आत्मोपलब्धि। हम आत्मा के मूल स्तर तक पहुँचना चाहते हैं, आत्मा को पाना चाहते हैं, मूल चेतना तक पहुंचना चाहते हैं । यह है हमारा मूल लक्ष्य । इससे पहले आता है प्राण । उसका स्थान इससे पूर्व है । आत्मा तक कौन पहुँच पाता है ? आत्मा तक वही पहुँच पाता है जो प्राणवान् है, जो शक्तिशाली है। जिसका मनोबल ऊंचा है, जिसका संकल्प-बल प्रबल है वह पहुंच सकेगा आत्मा तक। जिसकी इच्छाशक्ति प्रबल है वह आत्मा तक पहुंच पायेगा । जिसका मनोबल क्षीण है, जिसका संकल्प-बल क्षीण है, जिसकी इच्छा-शक्ति, प्राणशक्ति दुर्बल है, जो वीर्यहीन है वह कभी आत्मा को नहीं पा सकता । आत्मा को पाने के लिए प्राण को शक्तिशाली बनाना जरूरी है। जो जप का स्तर है, वह प्राण के स्तर पर चलने वाला क्रम है। यह प्राण को शक्तिशाली बनाता है। प्राण हमारी विद्युत्-शक्ति है। हर प्राणी में यह शक्ति होती है। कोई भी प्राणी ऐसा नहीं होता जिसमें यह शक्ति न हो। हमारी सारी सक्रियता, चंचलता, हमारा उन्मेष और निमेष, हमारी वाणी, हमारा चिन्तन, हमारी गति, हमारी दीप्ति, हमारा आकर्षण---ये सब प्राण के आधार पर होते हैं, विद्युत्-शक्ति के आधार पर होते हैं । विद्युत् ही ये सारे कार्य निष्पन्न करती है। हमारे शरीर में यह विद्युत् मौजूद है। इसे हम तेजस् शरीर कह सकते हैं, प्राण कह सकते हैं। विद्युत् को बढ़ाना मनोबल को बढ़ाना है। जिसकी विद्युत् तीव्र होती है उसका मनोबल बढ़ जाता है। जिसकी विद्युत् क्षीण होती है उसका मनोबल घट जाता है। 'आदमी को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए'---यह केवल एक मान्यता मात्र नहीं है। इसके पीछे बहुत बड़ा रहस्य है। हमारे भीतर विद्युत्-शक्ति का एक आयतन है, एक पॉवर हाउस है। उसका स्थान है पृष्ठरज्जु का अन्तिम छोर। पृष्ठरज्जु जहाँ समाप्त होती है वहाँ एक कन्द है। वह है पीछे के हिस्से में, कटिभाग के पास। वहाँ विद्युत्-शक्ति उत्पन्न होती है । वह एक विद्युत् जेनरेटर है, विद्युत् उत्पत्ति का केन्द्र है। जिस व्यक्ति की विद्युत-शक्ति ऊर्ध्व की ओर जाती है, ऊर्ध्वगामी बन जाती है वह बहुत शक्तिसम्पन्न हो जाता है। ब्रह्मचर्य की साधना से व्यक्ति अपनी ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी बनाकर मस्तिष्क तक ले जाता है। उसकी शक्ति बढ़ जाती है। उसका प्राण शक्तिशाली हो जाता है। उसका मनोबल मजबूत हो जाता है और उसमें इतना पराक्रम फूट पड़ता है कि वह जो संकल्प करता है, वह पूरा होता है। वह अपने संकल्प से कभी नहीं हटता, चाहे प्राण ही क्यों न चले जायें। जिसकी प्राणधारा कामवासना के कारण नीचे की ओर प्रवाहित होने लगती है, उसका मनोबल क्षीण हो जाता है, चेतना क्षीण हो जाती है, संकल्प टूट जाता है, मन निराशा से भर जाता है, पग-पग पर विचलन होता है, किसी भी क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पाता। इसीलिए ब्रह्मचर्य, वाणी का संयम, मन का संयम, एकाग्रता की साधना, ये सारे प्राणशक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाने के उपाय हैं। इनसे मनोबल बढ़ता है और धैर्य मजबूत होता है। ये अध्यात्म नहीं हैं, किन्तु अध्यात्म तक पहुंचने के साधन हैं । नौका के समान हैं। ये सारी नौकाएँ हैं । ये लक्ष्य नहीं, साधन मात्र हैं। हमें पहुँचना कहीं और है । इनको माध्यम बनाकर हम वहाँ पहुँच जाते हैं, जहाँ हमें पहुँचना है। संकल्प किया और अध्यात्म की साधना हो गई—यह बात नहीं है। संकल्प उस व्यक्ति को ही करना पड़ता है जो निशाना मारता है, निशाना मारना जानता है। एक शिकारी जो निशाना मारना जानता है, उसे संकल्प भी करना होता है और एकाग्रता भी करनी होती है। क्या शिकारी की एकाग्रता कम होती है ? क्या प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले निशानेबाजों की एकाग्रता कम होती है ? कम नहीं होती। पूरी एकाग्रता होती है तभी लक्ष्य पर तीर लगता है। युद्ध लड़ने वालों में भी संकल्प होता है । द्वितीय विश्वयुद्ध में चचिल ने 'वी' का चिह्न दिया था। उसने प्रत्येक योद्धा से कहा-'वी' को सदा अपने समक्ष रखो, हम जीत जायेंगे। यह 'बी' जीतने का दृढ़ संकल्प था। सैनिक में जितना दृढ़ संकल्प होता है, साहस होता है, एकाग्रता होती है, वैसी दूसरे में नहीं होती। तो प्रश्न होता है कि क्या यह संकल्प, साहस, एकाग्रता आत्मोपलब्धि है? अध्यात्म है ? नहीं। ये तो साधन मात्र हैं। संकल्प एक साधन है। इच्छाशक्ति एक साधन है। प्राणशक्ति एक साधन है। मनोबल एक साधन है । एकाग्रता एक साधन है। अब इन साधनों को हम किस दिशा में ले जाते हैं, किस दिशा में प्रवाहित करते हैं, यह उद्देश्य पर निर्भर होता है। आत्मा को पाने के लिए भी इनका उपयोग किया जा सकता है और आत्मा से दूर भागने के लिए इनका उपयोग किया जा सकता है। आत्मा की दिशा में भी इनका प्रयोग हो सकता है और आत्मविरोधी दिशा में भी इनका प्रयोग हो सकता है। ये साधन मात्र हैं, उपकरण हैं । आप इन्हें किस दिशा में प्रयुक्त करते हैं, यह आपके उद्देश्य पर निर्भर है। जप भी एक साधन है। यह कोई आध्यात्मिक नहीं है। साधन मात्र है, साध्य नहीं है। यह प्राणशक्ति का एक प्रयोगमात्र है। इसमें शब्द और मन-इन दोनों का योग होता है। शब्द और मन-दोनों का समुचित योग होते ही एक शक्ति पैदा होती है। हम बोलते हैं। बोलने के साथ-साथ विद्युत् की तरंगें पैदा होती हैं। हम सोचते हैं। हमारे सोचने के साथ-साथ विद्युत् की तरंगें पैदा होती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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