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________________ प्रथम खण्ड: श्रद्धार्चन ५५ ० ० हमें भी अवसर मिला था ऐसे महापुरुष के सत्संग में जीवन के लिए अति उपयुक्त मार्गदर्शनपरक बात समझाई, रहकर आध्यात्मिक आस्वाद को ग्रहण करने हेतु धार्मिक अपनी ध्यान-साधना का मर्म बताया, निजी शिष्या की तत्वचर्चा करने का । अनुभव-सिन्धु से स्वानुभव के बिन्दु तरह लेखन कार्य में प्रगति करने का प्रोत्साहन दिया और को घट में उतारने का, तथा संयम-साधना से निखरे हुए मुझ जैसी अल्पज्ञ छोटी साध्वी का उत्साह बढ़ाने के लिए साधक के जीवन रूपी आइने में अपने आपको भरे व्याख्यान में महाराष्ट्र सिंहनी कहकर पुकारा ! आज निहारने का। भले ही आप हमसे कोसों दूर हैं किन्तु आपकी वे अपनत्व बात सन् १९७५ की महिना बैसाख का । हम दिल्ली भरी बातें अब भी हमारे कानों में गंज रही हैं। से १०० मील की पदयात्रा करते हुए, परमाराध्य आत्मार्थी इतने बड़े सागर सम गम्भीर, हिमालय सम उर्ध्व जी पूज्य गुरुदेव महाराज सौजन्यमुनि, महाराष्ट्र प्रवर्तक जीवन की महिमा लिखने के लिए विशिष्ट लेखन कला में पूज्य श्री मंत्री जी महाराज तथा महान् विदुषी पूज्य सिद्धहस्त पूज्य श्री उपाध्याय जी महाराज के शिष्य रत्न सद्गुरुणी श्री उज्ज्वलकुमारी जी महाराज आदि गुरुभगवंतों श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज की लेखनी भी जहाँ अधूरी पड़ की पुनीत सेवा में अहमदनगर पहुँचे थे और उसी स्वर्णमय सकती है वहाँ मुझ जैसी अत्यन्त लघुसाध्वी की लेखनी अवसर में सोने में सुहागे की तरह मरुधर भूषण अध्यात्म- कैसे समर्थ सिद्ध हो? योगी पूज्य उपाध्याय जी महाराज जिनशासन के चमकते फिर भी अभिनन्दन के इस अभिनन्दनीय प्रसंग पर सितारे पूज्य भाई (देवेन्द्र मुनि जी) महाराज आदि संत- प्रस्तुत करने के लिए ये भाव कलियाँ समारम्भ की सौरभ वृन्द का मंगलमय पदार्पण हुआ था । ठाठ लग रहा था में सुरभि का छोटा-सा कार्य वहन करेगी। व्याख्यान वाणियों का, जमघट जग गया था महान् शानियों अन्त में-पूज्य उपाध्याय जी महाराज के स्वास्थ्य का, भीड़ उमड़ घुमड़कर आ रही थी बरसाती बादलों युक्त दीर्घायु की कामना पूज्य माताजी महाराज आदि सभी की तरह किन्तु उदार हृदयी इन सन्तों ने हमें अपना की ओर से व्यक्त कर रही है। अधिकांश समय हमारी जिज्ञासाओं की पूर्ति के लिए दिया, श्रद्धा के दो फूल 0 साध्वी मंजुषी (साहित्यरत्न जैनसिद्धान्तचार्य) जो विद्वत्ता के अगाध सागर हैं, सिद्धियाँ जिनके चरण बुलन्द किया, उन महामना स्वनामधन्य राजस्थान-केसरी चूमती हैं, वैराग्य जिनका अंगरक्षक है, संयम जिनका उपाध्याय पूज्यपाद श्री पुष्कर गुरुदेव के चरणारविन्दों में जीवन-साथी है, जो 'अध्यात्मयोगी' के नाम से प्रख्याति बारम्बार वन्दन करके मैं धन्यता का अनुभव करती हूँ। प्राप्त महान् सन्त हैं, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सन् १९७५ में पूना में गुरुदेव के प्रथम दर्शन ने ही 'अजयमेरु' हैं, श्रमण संघ-प्रदत्त उत्तरदायित्वों का विवेक मन पर उनके असाधारण और विराट् तथा आकर्षक और धैर्य से निर्वहन करते हैं, जिनकी वाणी में कुछ निराला व्यक्तित्व की छाप छोड़ दी थी। पूना-चातुर्मास गुरुदेव की ही ओज है, उलझी समस्याओं का समाधान करने में सिद्ध- छत्रछाया में अत्यन्त आनन्द के साथ व्यतीत हुआ। जब भी हस्त हैं, भक्तों के सहारे हैं, श्रमण-संस्कृति के प्रचार और कभी कोई कठिनाई खड़ी हुई, आपके वरदहस्त के प्रभाव प्रसार में जिनका महत्वपूर्ण योगदान है, जैनत्व के सर्व. से ऐसे विलीन हुई, जैसे वर्षा होते ही आँधी नष्ट हो मंगलकारी रूप के विकास के लिए जो कटिबद्ध हैं। जिनके जाती है और जैसे सूर्य के प्रभाव से ओसकण नष्ट हो चरणकमल जहाँ भी पड़ते हैं, संयम-सदाचार और समता जाते हैं। के सौरभ से जन-जन का हृदय प्रमुदित हो जाता है। गुरुदेव के व्यक्तित्व का तो कहना ही क्या ? उनकी सत्साहित्य का अमृत पिलाकर जो भौतिकता से मूच्छित मांगलिक में ही इतनी शक्ति है कि आधिदैविक बाधाएँ विश्व समाज को नव-जीवन प्रदान करते हैं, जिनका औदार्य समूल नष्ट हो जाती हैं, तप करने में कमजोर व्यक्ति मासअत्यन्त विशाल है, जिन्होंने साम्प्रदायिक संकीर्णताओं की खमण जैसे तप भी हँसते-हँसते सहज ही में कर जाते हैं। दीवारों को तोड़कर संघीय एकता के महामन्त्रोच्चार में जंगल में भी मंगल कर देने वाले आपके चरणों ने अपना भी स्वर मिलाकर श्रमण-संगठन की आवाज को अब तक हजारों मील की पद-यात्रा करके भारत के विभिन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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