SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 877
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड ++ + +++++++ +++++++++++ + ++ +++++ + + + + + + + + ++ + + + +++ + ++++++++ + + + + +++ + + + + पीपाड (मारवाड़) १९८६, २००० दुन्दाडा ( " ) १९६० ब्यावर (राजपूताना) १९६१ लीमडी (गुजरात) १९६२ नासिक (महाराष्ट्र) १६६३, २००४ मनमाड ( , ) १९६४ कम्बोल ( मेवाड़ ) १९९५ रायपुर (मारवाड़) १९९६ धार (मध्य प्रदेश) घाटकोपर ( बम्बई ) २००५ चूडा (सौराष्ट्र) २००६ जयपुर (राजस्थान) २०१०, २०१२, २०१३ दिल्ली (,) २०११ महास्थविर श्री ताराचन्दजी म० के जीवन की संक्षिप्त रूपरेखा यहाँ पर प्रस्तुत की गई है। जिससे विज्ञगण समझ सकते हैं कि उनका व्यक्तित्व कितना तेजस्वी, ओजस्वी और वर्चस्वी था। उनके विराट जीवन को शब्दों में बांधना बड़ा ही कठिन है। उन्होंने जन-जन के सुषुप्त अन्तर्जीवन को जागृत किया। श्रमणसंघ के संगठन के लिए भगीरथ प्रयास किया। ग्राम और नगरों में कलहाग्नि का उपशमन किया, शान्ति, सौमनस्य एकता की स्थापना की और समाज की बुराइयों के विरुद्ध सिंहनाद किया और जैनधर्म के गौरव में चार चांद लगाये । दिव्य तपोधन श्री जसराजजी महाराज तप आत्मा की एक परम तेजोमय शक्ति है। साधारण मानव इस परम शक्ति को जागृत नहीं कर सकता । वह इस परम शक्ति के सम्बन्ध में जानता भले ही हो, किन्तु अनुभव नहीं कर सकता । वे महान् भाग्यशाली हैं जिन्होंने इस शक्ति का अनुभव किया है। आचार्य मलयगिरि ने तप की परिभाषा करते हुए लिखा है-जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता हो उन्हें भस्मसात् कर डालने में समर्थ हो, वह तप है। आचार्य जिनदासगणी महत्तर ने तप की व्युत्पत्तिजन्य परिभाषा करते हए कहा—जिस साधना-आराधना व उपासना से पाप-कर्म तप्त हो जाते हैं वह तप है। आचार्य अभयदेव ने तप का निरुक्त अर्थ करते हुए कहा है-जिस साधना से शरीर के रस, रक्त, मांस, हड्डियाँ, मज्जा, शुक्र आदि तप जाते हैं, सूख जाते हैं वह तप है तथा जिसके द्वारा अशुभ कर्म जल जाते हैं वह तप है।' विश्व में जितनी भी शक्तियाँ, विभूतियाँ और लब्धियाँ हैं उनकी उपलब्धि तप से होती है-'तपोमूला हि सिद्धयः' कहा गया है। श्रद्धाविभोर होकर वैदिक ऋषियों ने भी तप की महिमा मुक्तकण्ठ से गायी है। 'तप ही मेरी प्रतिष्ठा है।' श्रेष्ठ और परमज्ञान तप के द्वारा प्रकट होता है। ब्रह्मचर्य और तप के द्वारा देवताओं ने भी मृत्यु को जीत लिया।' तप ही स्वयं ब्रह्म है । यह आत्मा सत्य और तप के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । भारतभूमि अतीत काल से ही तपोभूमि रही है। यहाँ पर महातपस्वियों की एक सुदीर्घ परम्परा है। तपस्वी अपनी साधना से न केवल बाह्य शरीर को तपाता है किन्तु अन्तरंग का भी शोधन करता है । वस्तुतः अन्त:शोधन ही तप का उद्देश्य है । परम श्रद्धेय श्री जसराजजी महाराज एक परमतपस्वी सन्त थे। उनका जन्म अजमेर जिले के सरवाड ग्राम में विक्रम संवत् १८७७ (सन् १८२०) को हुआ था। उनके पिता का नाम धरमचन्दजी और माता का नाम श्रद्धा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy