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________________ महास्थविर श्री ताराचन्दजी महाराज १३५ 00 निस्पृहता और आध्यात्मिक मस्ती को देखकर नेहरूजी के हत्तन्त्री के तार भी झनझना उठे कि यह महात्मा अद्भुत है। आपश्री ने छह महीने पूर्व ही कह दिया था कि अब मेरा अन्तिम समय सन्निकट है । अतः आपश्री ने अपने जीवन की, नि:शल्य होकर आलोचना करली । और सदा मुझे या अन्य सन्त को अपने पास रखते। आपने यह भी कहा कि जब मुझे अांग (लकवा) होगा, उस समय मेरा अन्तिम समय समझना । मैं तुम्हें अपने पास इसीलिए रखता हूँ कि कदाचित् उस समय मेरी वाचा बन्द हो जाय तो तू मुझे संथारा करा देना । वि० सं० २०१३ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी के दिन मध्याह में आपश्री प्रधानमन्त्री मदनलालजी महाराज के पास पधारे जो लालभवन में नीचे विराज रहे थे। वार्तालाप के प्रसंग में आपश्री ने कहा मदनलालजी, कल व्याख्यान नहीं होगा। मदनलालजी महाराज ने विनय के साथ पूछा-गुरुदेव, किस कारण से व्याख्यान नहीं होगा? आपश्री ने कहा इसका रहस्य अभी नहीं, कुछ समय के बाद तुझे स्वयं ज्ञात हो जायेगा । सायंकाल पांच बजे आपश्री ने आहार किया और हाथ धोने के लिए ज्यों ही लघुपात्र आपने उठाया त्यों ही लकवे का असर हो गया। लकवे के असर होते ही आपने कहा-मेरा अन्तिम समय आ चुका है । अब मुझे संथारा करा दो । उसी समय प्रधानमंत्री मदनलालजी महाराज ने आकर कहा-गुरुदेव, आपका शरीर पूर्ण स्वस्थ है ? डाक्टर को अभी बुलवाते हैं । वे जाँच करेंगे क्योंकि लकवे का मामूली असर हुआ है और यह बीमारी तो ऐसी है कि समय का कुछ भी पता नहीं। गुरुदेवश्री ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मेरा अब अन्तिम समय आ चुका है। यदि आप विलम्ब करते हैं तो मैं स्वयं चतुर्विध संघ की साक्षी से संथारा ग्रहण करता हूँ। आपश्री ने यह कहकर संथारा ग्रहण कर लिया। आपकी अत्युत्कृष्ट भावना देखकर अन्त में मदनलालजी महाराज ने संघ की साक्षी से संथारा करवाया। आपने चतुर्विध संघ से क्षमायाचना की और अपने शिष्यों को हित-शिक्षाएँ दी । ज्ञान-दर्शन-चारित्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी और अन्त में आपने प्रधानमंत्री मदनलालजी महाराज से प्रतिक्रमण सुना और अन्त में ये शब्द निकले कि-मदनलालजी, आपने प्रतिक्रमण अच्छा सुनाया। उसके बाद आपकी वाचा बन्द हो गयी। आपकी भावना उत्तरोत्तर निर्मल हो रही थी। और प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में आपने महाप्रकाश की ओर प्रयाण कर दिया। महास्थविर ताराचन्दजी महाराज का जीवन एक ज्योतिर्मय जीवन था। आपमें चारित्रिक पवित्रता, वैचारिक उदारता और दृढ़ता तथा सेवापरायणता के सद्गुणों के सुमन सदा खिलते रहे । आप में अत्यधिक स्फूति थी। अपना कार्य अपने हाथों से करना पसन्द था। लघुमुनियों की सेवा करने में भी आप सदा आगे रहते थे। आपका विहारक्षेत्र पूर्वाचार्यों की अपेक्षा विस्तृत था। आपने भारत के विविध अंचलों में ६४ वर्षावास किये। उसकी तालिका इस प्रकार है जोधपुर (मारवाड़) १९५०, १९६१, १९७७, २००१ (वि० संवत्) पाली ( , ) १६५१, १९६२, १९७०, १९८० जालोर ( , ) १६५२, १९६७, १६७५, १६७६, १९७५ रंडेडा ( मेवाड़) १९५३ निंबाहेडा (,) १९५४ सनवाड ( , ) १६५५, १९६६ भिंडर ( , ) १६५६ गोगुंदा ( , ) १६५७, १९८८ सादड़ी (मारवाड़) १९५८, २००८ सिवाना (,) १६५६, १९६५, १६७८, १९८४, १९८६, १६६६, २००६ समदडी ( , ) १६६०, १९६४, १९६६, १९७१, १९७२, १९७३, १६७४, १६८१, १९८३, १९६८ सालावास (,) १६६३ बालोतरा ( ) १९६८ देलवाड़ा ( मेवाड ) १९७६ नान्देशमा (,) १९८२, २००२, २००७, खंडप (मारवाड) १९८७, १९६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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