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________________ ५२ . श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . - ++ ++ ++ ++ + + ++ ++++ ++ श्रमणसंघ के भूषण 0 डा० महासती धर्मशीला एम० ए०, पी-एच० डी० अहमदनगर में आत्मज्ञान के दिव्य ज्योतिधर, आपश्री स्थानकवासी जैनसमाज के एक विद्वान् आत्मार्थी परमपूज्य श्रद्धय सद्गुरुवर्य श्री मोहनऋषिजी क्रान्तिकारी, सुमधुर, मिलनसार और प्रखर व्याख्याता महाराज विराजमान हैं, और जन-जन के उत्कर्ष की मंगल सन्त हैं। आपश्री जैनधर्म और दर्शन के निगूढ़तम रहस्यों कामना करने वाले पूज्य प्रवर्तक श्री विनय ऋषि जी महा- को जन-साधारण और गम्भीर विचारकों के समक्ष इस रूप राज और सभी पर स्नेह की सरस वृष्टि करने वाली, में प्रस्तुत करते हैं कि श्रोताओं को वह विषय हृदयंगम सतीशिरोमणी परम पूजनीया गुरुमैया श्री उज्ज्वल हो जाता है। आपश्री की प्रवचन शैली अत्यन्त ओजपूर्ण, कुमारी जी विराजमान थीं तब आपश्री अपने सुयोग्य प्रभावोत्पादक और श्रोताओं के अन्तस्थल को स्पर्श करने शिष्यों सहित यहाँ पर अनेक बार पधारे, उस समय वाली होती है। आपकी सिंह के समान गम्भीर गर्जना को आपश्री के दर्शनों का सौभाग्य मुझे सम्प्राप्त हुआ। आपश्री श्रवण कर ऐसा कोई शायद ही व्यक्ति होगा, जो उसे के दर्शन कर मन-मयूर नाच उठा, हृदय कमल खिल सुनकर प्रभावित न हो । आप साधारण से साधारण बात उठा और हृतंत्री के तार झनझना उठे कि 'सन्त हों तो को भी इस प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते हैं कि श्रोता ऐसे हों' आपश्री की निःस्वार्थ भावना, प्रेम का प्राधान्य मन्त्र-मुग्ध हो जाते हैं। मैंने देखा ही नहीं, अपितु अनुभव और अपनत्व को देखकर मैं तो क्या मेरे गुरुजन भी किया है कि आपश्री के अमृतोपम उपदेश को श्रवण कर अत्यन्त प्रभावित हुए। उन्हें ऐसा अनुभव हुआ कि यह सहज ही श्रोता उसे धारण कर अपने आपको धन्य अनुभव मरुधर धरा की ही नहीं अपितु जैन जगत की एक महान् करते हैं। विभूति हैं। आपश्री अपने जीवन का अमूल्य क्षण प्रमाद, आलस्य पूज्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज का और निरर्थक वार्तालाप में इधर-उधर की विकथा में जीवन सद्गुणों का आगार है, मैं किन गुणों का अंकन व्यतीत नहीं करते । 'समय ही धन है' इस उक्ति के अनुसार करू और किन गुणों का अंकन न करू यह एक गम्भीर अधिक से अधिक समय ज्ञान और ध्यान में व्यतीत करते समस्या मेरे समक्ष उपस्थित हुई तथापि 'अकरणात् मंद- हैं । आपश्री ने ध्यान-साधना में एक विशिष्ट संसिद्धि प्राप्त करण श्रेयः' प्रस्तुत उक्ति के अनुसार नहीं करने से कुछ की है जिससे हजारों मानवों को कष्टों से मुक्ति मिली है। करना श्रेयष्कर है अतः यह प्रयास कर रही हूँ। वे आर्त और रौद्र ध्यान से हटकर धर्म-ध्यान में प्रवृत्त राजस्थान की पुण्यभूमि को भले ही 'सस्य श्यामला हुए हैं। इतना होने पर भी आपश्री में किञ्चित् भी और सुजलाम सुफलाम्" होने का गौरव न प्राप्त हुआ हो साधना का अहंकार नहीं है। किन्तु सन्तों की जन्मभूमि और वीरों की कर्मभूमि होने का आपश्री दृढ़निश्चयी हैं, जो भी कार्य आपश्री के मन गौरव अवश्य ही प्राप्त हुआ है। सचमुच राजस्थान कृषि, में जंच गया उसे पूर्ण करके ही विश्राम लेते हैं। बीच में महर्षि, सन्त, तपस्वी, चिन्तकों की भूमि है। वहाँ के मिट्टी चाहे कितनी भी बाधाएँ क्यों न आ जायें आप उन सभी के कण-कण में अणु-अणु में महापुरुषों के तपःपूत व्यक्तित्व बाधाओं की चट्टानों को चीरते हुए अपने संलक्ष्य की ओर के शुभ परमाणुओं की सुगन्ध आ रही है, ऐसी राजस्थान निरन्तर बढ़ते जाते हैं। की पवित्र धारा में अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर मुनिजी आपश्री की शारीरिक सुषमा तप के तेज से और महाराज का जन्म हुआ। ध्यान के प्रभाव से सतत दीप्त रहती है। आपश्री सम्पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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