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________________ १२० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड पर पहुंच चुके थे । बालक पूनमचन्द के फूफाजी जोधपुर में रहते थे। उन्हें पता लगा कि बालक पूनमचन्द जालोर से भागकर यहाँ आया है और वह श्रमणधर्म ग्रहण करने जा रहा है। अतः वे शीघ्र ही आरक्षक दल के अधिकारी के पास पहुँचे और आरक्षक दल के अधिकारी को लेकर बालक पूनमचन्द जो दीक्षा लेने के लिए जा रहा था उसके घोड़े को रोक दिया और बालक को अपने घर ले आये। बुआ ने बालक को विविध दृष्टियों से रूपक देकर समझाने का प्रयास किया कि तू बालक है, अतः दीक्षा ग्रहण न कर। हमारे घर में किसी भी बात की कमी नहीं है । जोधपुरनरेश भी हमारे पर प्रसन्न हैं। फिर तू संयम क्यों ले रहा है ? बालक पूनमचन्द ने कहा बुआजी, दीक्षा किसी वस्तु की कमी के कारण नहीं ली जाती। जो किसी की कमी के कारण दीक्षा लेता है वह दीक्षा का आनन्द प्राप्त नहीं कर सकता। बुभुक्षु दीक्षा का अधिकारी नहीं, किन्तु सच्चा मुमुक्षु ही दीक्षा लेता है। आप चाहे कितना भी प्रयास करें तथापि मैं संसार में न रहूँगा और दीक्षा ग्रहण कर जैन श्रमण बनूंगा। तथापि मोह के कारण बुआ ने उसे कमरे में बन्द कर दिया और द्वार तथा खिड़कियों के ताले लगवा दिये। एक महीने तक वह कमरे में बन्द रहा । किन्तु एक दिन बुआ एक खिड़की का ताला लगाना भूल गयी थी। अतः उस खिड़की के रास्ते से बालक पूनम घर से बाहर निकल गया और लुकता-छिपता जालोर पहुँच गया और अपनी बहन तुलसाजी को उन्होंने अपने हृदय की बात कही । बहन तुलसी ने कहा- भाई, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करती-करती परेशान हो गयी हूँ। पता नहीं तुम्हारी दीक्षा कब होगी। आचार्यप्रवर अभी यहाँ आये हुए हैं। अतः मैं पिता को कहकर दीक्षा ग्रहण करती हूँ। पिता की अनुमति से पुनः दोनों भाई-बहन दीक्षा के लिए तैयार हुए और ज्यों ही दीक्षा के लिए वे नगर के द्वार पर पहुँचे त्यों ही काका का पुत्र जो कोतवाल था, वह वहाँ आ पहुँचा और बालक पूनम का हाथ पकड़कर अपने घर ले चला। सभी इनकार होते रहे, किन्तु उसने किसी की भी न सुनी। बहन तुलसी ने वहीं पर सत्याग्रह कर दिया कि अब मैं पुनः घर नहीं जाऊँगी। अतः विवश होकर बहन तुलसी को उसी दिन दीक्षा देने की अनुमति प्रदान की। बालक पूनम ने भी अत्यधिक आग्रह किया और कोतवाल का कठोर दिल पिघल गया और उसने कहा-तू जालोर में तो दीक्षा नहीं ले सकता । यदि तुझे दीक्षा लेनी ही है तो जालोर के अतिरिक्त कहीं पर भी दीक्षा ले सकेगा। तीन वर्ष तक मैं तेरी हर दृष्टि से परीक्षा कर चुका । अतः तुझे मैं अब अनुमति देता हूँ। बालक पूनम ने अपने भ्राता कोतवाल की बात स्वीकार कर ली और जालोर से २०-२५ मील दूर भँवरानी ग्राम में बड़े ही उत्साह के साथ आपकी दीक्षा सम्पन्न हुई । दीक्षा का दिन वि० संवत् १६०६ माघ शुक्ला नवमी मंगलवार था । इस प्रकार ग्यारह वर्ष की उम्र में वैराग्य भावना जागत हई थी किन्तु तीन वर्ष तक विविध बाधाओं को सहन करने के पश्चात् चौदह वर्ष की उम्र में आपकी दीक्षा सम्पन्न हुई। आपने आचार्यश्री के सान्निध्य में आगम और दर्शन का गम्भीर अध्ययन किया। आपका रूप पूनम के चाँद की तरह सुहावना था । आपके रूप और प्रतिभा पर मुग्ध होकर एक यति ने आपसे निवेदन किया कि स्थानकवासी परम्परा के श्रमणों को अत्यधिक कष्ट उठाना पड़ता है। न उन्हें समय पर खाने को मिलता है और न सुन्दर भवन ही मिलते हैं। आपका शरीर बहुत ही सुकुमार है, वह इन सभी कष्टों को सहन करने में अक्षम है। एतदर्थ मेरा नम्र निवेदन है कि आप यति बन जाये तो मैं आपको यतियों का श्रीपूज्य बना दूंगा। यतियों का श्रीपूज्य बनना बहुत ही भाग्य की निशानी है। क्योंकि श्रीपूज्य के पास लाखों-करोड़ों की सम्पत्ति होती है, उनके पास अधिकार होते हैं। वे जमीन पर पैर भी नहीं रखते । चलते समय उनके पैरों के नीचे पावडे बिछा दिये जाते हैं और खाने के लिए बढ़िया से बढ़िया मन के अनुकूल पदार्थ मिलते हैं । जीवन की प्रत्येक सुविधा उन्हें उपलब्ध है। मुनि पूनमचन्दजी ने यति को कहा-यतिवर, मेरे स्वयं के घर में कौनसी कमी थी? यदि मुझे खाना-पीना और मौज-मजा ही करना होता तो फिर साधु क्यों बनता ? साधु बनकर इस प्रकार का संकल्प करना ही मन की दुर्बलता है। मैं साधना के महापथ पर वीर सेनानी की तरह निरन्तर आगे बढूँगा । शरीर भले ही मेरा कोमल हो, किन्तु मन मेरा दृढ़ है। मैं तो तुम्हें भी प्रेरणा देता हूँ कि भौतिकवाद की चकाचौंध में साधना को विस्मृत होकर आत्मवंचना न करो। यति के पास कोई उत्तर नहीं था। वह नीचा सिर किये हुए वहाँ से चल दिया। आपश्री ने प्रवचन-कला में विशेष दक्षता प्राप्त की। आपश्री के प्रवचनों में आगम के गहन रहस्य सुगम रीति से व्यक्त होते थे । कठिन से कठिनतर विषय को भी आप सरल, सुबोध रीति से प्रस्तुत करते थे जिसे सुनकर श्रोता मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। आपश्री ने जोधपुर, बीकानेर, उदयपुर, कोटा, ब्यावर, पाली, शहापुरा, अजमेर, किसनगढ़, फलौदी, जालोर, बगहुँदा, कुचामण, समदडी, पंचभद्रा, प्रभृति क्षेत्रों में वर्षावास किये। आप जहाँ भी पधारे वहाँ पर धर्म की अत्यधिक प्रभावना हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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