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________________ प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन ४६ . ++++++++ + +++ + +++ +++ + - - - - मैंने देवेन्द्र मुनिजी से यह नम्र निवेदन किया कि योजना गौरवमय परंपरा के जाज्वल्यमान तेजस्वी रत्न हैं को मूर्तरूप देने के लिए आपका हार्दिक सहयोग अपेक्षित उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी। मैंने उनके सर्वप्रथम है। आप श्री ने गुरुदेव श्री के आदेश से सहर्ष स्वीकृति दी। दर्शन किये सन् १९७१ में। उस समय आपश्री घाटदेवेन्द्रमुनि जी चाहते थे कि स्मृतिग्रन्थ कवि श्री के अनु- कोप्पर, बंबई में विराज रहे थे। आपके प्रथम दर्शन ने ही रूप एक विशिष्ट अभिनन्दन ग्रन्थ बने। मैंने स्मृति ग्रन्थ मेरे हृदय पर एक निराला प्रभाव छोड़ा। आपका भव्य की रूपरेखा जैन समाज के मूर्धन्य मनीषी चिम्मनलाल व्यक्तित्व अत्यन्त उदार और विशाल हृदय और असाम्प्रचकुभाई शाह के सामने प्रस्तुत की। उन्होंने योजना को देख- दायिक भावनाओं ने मेरे मन में आप श्री के प्रति श्रद्धा कर हार्दिक आल्हाद व्यक्त किया और साथ ही उन्होंने यह उत्पन्न की। जब मैंने आप श्री का प्रवचन सुना तो मुझे सुझाव रखा कि प्रस्तुत स्मृति ग्रन्थ में स्थानकवासी परं- ऐसा प्रतीत हुआ केसरीसिंह की गंभीर गर्जना ही हो रही परा मान्य बत्तीस आगमों का सार संक्षेप में दिया जाय तो है। आपश्री के प्रवचनों में आगम के गुरुगंभीर रहस्य प्रस्तुत ग्रन्थ की एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। बत्तीस इसप्रकार उद्घाटित होते हैं कि मुमुक्षु साधक विस्मित आगमों का संक्षेप में सार लिखना कोई हँसी मजाक का हो जाता है। साथ ही आपकी प्रवचन-कला की यह कार्य नहीं था । उसके लिए विराट् अध्ययन और आगम महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि श्रोता कभी बोर नहीं होते। साहित्य के दोहन की अपेक्षा थी। चिमनभाई आदि ने नदी के प्रवाह की तरह आपका प्रवचन विषय का प्रतिउपाध्याय पुष्कर मुनि जी महाराज और देवेन्द्र मुनि जी पादन करता हुआ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है । आपके से उसके लेखन हेतु नम्र निवेदन किया । मुझे लिखते हुए जैसे सफल तेजस्वी प्रवचनकार जैनसमाज में अंगुलियों परम आल्हाद है कि मुनिश्री ने हमारी प्रार्थना को पर गिनने जितने ही हैं। प्रवचनकार के साथ ही आपकी सम्मान देकर एक महीने के स्वल्प समय में ही आगम ध्यान-साधना भी गजब की है । ध्यान-साधना अन्य सन्त साहित्य पर गंभीर शोधप्रधान तुलनात्मक दृष्टि से सार व सतीजन भी करते हैं किन्तु उनमें समय की जो नियलिखकर एक महान कार्य संपन्न किया । जिन विद्वानों ने मितता चाहिए वह नहीं होती। मैंने देखा है, आपश्री उसे पढ़ा, वे मन्त्रमुग्ध हो गये। इस प्रकार मुनिश्रीजी के नियमित समय पर ध्यान करते हैं। घाटकोपर में आपश्री प्रबल पुरुषार्थ से ही १८६ पृष्ठ का मैटर ग्रन्थ में जा के नेतृत्व में तीन दीक्षाओं का आयोजन था। आपश्री की सका। मुनिश्री जी दूर थे और सुदूर दक्षिण भारत की आज्ञा से तपस्वी डुगरसी मुनि दीक्षा की विधि कर रहे यात्रा करना चाहते थे तथापि उन्होंने ग्रन्थ को सुन्दरतम थे। विधि चल रही थी किन्तु आपका ध्यान का समय हो बनाने के लिए जो प्रयास किया उनके असीम उपकार को गया । आप उस समय हजारों की जनमेदिनी की उपेक्षा मैं विस्मृत नहीं कर सकती। मुनिश्री जी अपनी कमनीय कर ध्यान के लिए ध्यान-कक्ष में पधार गये । यह है ध्यान कल्पना से ग्रन्थ को और भी अधिक सुन्दर बनाना चाहते के समय की नियमितता। ध्यान का समय होने पर आप थे। वे विश्व के मूर्धन्य मनीषियों के उत्कृष्ट लेख भी देना बिना रुके ध्यान करने को पधार जाते हैं। आपश्री का चाहते थे, किन्तु समयाभाव के कारण हम मुनिश्री जी यह स्पष्ट मन्तव्य है कि बिना ध्यान की साधना के आनन्द की भावना को जैसा चाहिए वैसा मूर्तरूप नहीं दे सकीं। प्राप्त नहीं हो सकता। आपके दिव्य और भव्य चेहरे को मुनिश्री ने ग्रन्थ को अधिकाधिक श्रेष्ठ बनाने के लिए जो देखकर लगता हैं आपने ध्यान साधना से बहुत कुछ पाया पुरुषार्थ किया उसे हम कभी विस्मत नहीं हो सकते। है। आपश्री जैन समाज में और विशेष कर श्रमण और ऐसे सुयोग्य शिष्य के गुरुदेव उपाध्याय पुष्कर मुनि जी का श्रमणी समुदाय में ध्यान की प्रतिष्ठा देखना चाहते हैं। अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो और उसमें मैं अपनी श्रद्धा ध्यान के समय आपके शरीर में से ऐसे शुभ-पुद्गल निकके सुमन समर्पित न करू यह कैसे संभव हो सकता है ? लते हैं जिससे आधि-व्याधि और उपाधि से संतप्त व्यक्ति जब मुझे यह समाचार प्राप्त हुआ तब मेरा हृदय आनन्द- भी स्वस्थ हो जाता है और उसे अजब-गजब का आनन्द विभोर हो उठा। ___अनुभव होता है। वस्तुतः आप सच्चे अध्यात्मयोगी सन्त उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी स्थानकवासी समाज के है। आप श्रेष्ठ साहित्यकार भी हैं। आपकी अनेक मौलिक एक ज्योतिर्धर नक्षत्र हैं। उनकी जन्मस्थली राजस्थान का कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं जिन कृतियों ने जनमानस में एक प्रान्त मेवाड़ रहा है, जो त्याग, बलिदान, साहित्य आदर का स्थान प्राप्त किया है। और संगीत तथा कला का प्रमुख केन्द्र है, शक्ति और मैं महान उपकारी उपाध्याय श्री का हार्दिक अभिभक्ति का अद्भुत समन्वयस्थल है, जहाँ पर अनेकानेक नन्दन करती हूँ। मेरी हार्दिक मनोकामना है आपके सन्तों, शूरवीरों, देशभक्तों, और सती-साध्वियों ने जन्म जैसी तेजस्वी विभूतियों से ही जैन शासन गौरवान्वित है। लेकर अपनी साधना तपोयुक्त उदात्त जीवन से वहाँ के आप पूर्ण स्वस्थ रहकर हमारे पर सदा कृपा दृष्टि बना कण-कण को आलोकित और गौरवान्वित किया । उसी रखे-यही नम्र अभ्यर्थना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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