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________________ परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज विश्व की उन विमलविभूतियों में से हैं जो अपने प्रबल पुरुषार्थ, संयम, त्याग, तप की साधना, ज्ञान और प्रतापपूर्ण प्रतिभा के बल पर महान् बने। उनके समान तेजस्वी व्यक्तित्व और सफल साधक किसी भी समाज या राष्ट्र में युगों के पश्चात् होते हैं जो प्रसुप्त समाज, राष्ट्र और जनचेतना को अपने जाज्वल्यमान ओजपूर्ण व्यक्तित्व और मेघ गम्भीर गर्जना से झकझोर कर सावधान करते हैं । जैन संस्कृति संयम की संस्कृति है, यम-नियम, तप, त्याग और वैराग्य की संस्कृति है । यहाँ उसी जीवन का मूल्य आँका गया है, जिसमें संयम साधना की सुमधुर सौरभ महक रही हो, वैराग्य का पयोधी उछालें मार रहा हो । त्याग तप की ज्योति प्रदीप्त हो वही जीवन अगोरणीयान् और महतो महीयान् है । परम श्रद्धय सद्गुरुवर्य तप-त्यागऔर वैराग्य के बल पर साधना के मार्ग पर आगे बढ़े और निरन्तर बढ़ते ही रहे, इसलिए सही अर्थों में वे गुम पुरुष हैं । भारत के एक अध्यात्मवादी चिन्तक ने लिखा है कि "बशर ने दुनिया को खोजा, तो कुछ न पाया; किन्तु खुद को खोजा तो बहुत कुछ क्या सभी कुछ पा गया । एक उर्दू शायर ने भी कहा है "पहचान ले अपने को तो इन्सान खुदा है गो जाहिर में है खाक मगर खाक नहीं है !" Jain Education International प्रथम खण्ड श्रद्धाचंन अणोरणीयान् महतो महीयान D महासती श्री कुसुमवती जी D होता हो किन्तु अन्दर की आँख से देखते हैं, परखते हैं तो इस कंकर में भी शंकर छुपा हुआ दृष्टिगोचर होता है। ४३ सूर्य स्वयं प्रकाशित है अतः वह दूसरों को प्रकाश देता है, फूल में स्वयं में सुगन्ध है इसलिए वह दूसरों को सौरभ प्रदान करता है । गुरुदेव ने उत्कृष्ट ज्ञान की आराधना, संयम की साधना की, अतः वे दूसरों का मार्ग-दर्शन कर रहे हैं । देखने में भले ही इन्सान खाक का पुतला दृष्टिगोचर रही हूँ । पूज्य गुरुदेव वाणी के देवता हैं वे जहाँ भी पधारे उनकी तपःपूत अमृतवाणी ने जन-मानस को परितृप्त किया । गुरु वही है, जो जन-जन के मन-मन में ज्ञान की ज्योति जगाये। गुरु वह है, जो स्वयं भी तिरे और दूसरों को भी तारे । आपश्री ने ही मेरे जीवन का निर्माण किया। मैंने अपनी मातेश्वरी कैलाशकुंवर जी के साथ सद्गुरुणी जी श्री सोहनकुंवर जी महाराज के पास आती दीक्षा ग्रहण की और आपश्री की पवित्र प्रेरणा से संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी साहित्य का उच्च अध्ययन किया और परीक्षाएं भी समुत्तीर्ण कीं । आज मैं जो कुछ भी हूँ, वह आपश्री की तथा सद्गुरुणी जी महाराज का ही कृपा फल है। यदि सद्गुरुवर्य का उस समय पथ-प्रदर्शन प्राप्त नहीं होता तो मैं अध्ययन की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाती । अतः सद्गुरुवर्य का जितना भी उपकार माना जाय उतना ही कम है । सद्गुरुवर्य के श्रीचरणों में इस सुनहरे अवसर पर अपार भक्ति, श्रद्धा समर्पित कर अपने आपको धन्य अनुभव कर For Private & Personal Use Only ***** www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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