SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . + + + + + + + चतुर्थ वर्ण के कर्तव्य का भी स्मरण हो आता है । इस प्रकार महान सन्त पर केन्द्रित हो रही है जिसका आपने अपनी चारों वर्गों के मुख्य गुण आपके जीवन में पूर्णरूप, से साकार कमनीय कल्पना से निर्माण किया है। हुए हैं। जैसे मधुमक्खी विभिन्न पुष्षों में से सार लेकर आप श्री के जीवन के अनेक मधुर प्रसंग लिखने के शहद का निर्माण करती है वैसे ही आप श्री ने अपने जीवन लिए लेखनी छटपटा रही है, कभी अवकाश के क्षणों में का निर्माण किया है। वस्तुतः आप जीवन के अद्भुत कला- विस्तार से लिखकर अपनी लेखनी की सार्थकता सिद्ध कार हैं। करूंगी। इस समय यही हार्दिक मंगलकामना है कि हे पूज्य प्रवर ! आपका व्यक्तित्व सूर्य की तरह सदा चममुझे लिखते हुए यह गौरव होता है कि आपश्री ने देवेन्द्र कता रहे और चांद की तरह सदा दमकता रहे । आपकी मुनि जी जैसे महान मनीषी साहित्यकार तैयार किये हैं। पवित्र छत्रछाया हमें सदा मिलती रहे । कवि के शब्दों में जिनका साहित्य आज सम्पूर्ण जैन समाज के लिए एक आप जीवो वर्ष हजार आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है, समाज की दृष्टि उस हर वर्ष के दिन हो पचास हजार । मसुधा उनके लिए अपना ही नहीं, परात्री की इतनी उदार समाज और संस्कृति के सजग-प्रहरी महासती श्री कौशल्यादेवी जी (पंजाबी) उपाध्याय राजस्थान केसरी अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर बार आपथी के सानिध्य में आया वह सदा-सदा के लिए मुनि जी महाराज का व्यक्तित्व उस सरस स्निग्ध व स्वच्छ आपके प्रति श्रद्धालु बन गया । आपश्री की इतनी उदार चांदनी के समान है जिसने अपनी शीतल किरणों से जैन दृष्टि है कि अपना-अपना ही नहीं, पराया भी अपना ही है। समाज को आप्यायित किया है । जिनमें मानस की पवित्रता, वसुधा उनके लिए एक विशाल कुटुम्ब के समान है । मैंने ज्ञानरश्मियों की प्रखरता, और हिम-सीकरों-सी तरलता सन् १९७५ के पूना वर्षावास में स्वयं अनुभव किया कि एवं दीप्ति है जो अपने लिए कुछ नहीं पर दूसरों के लिए हम पंजाब प्रान्त की साध्वियां होने पर भी आपकी इतनी सब कुछ हैं। जिन्होंने अनेकों बाधाओं को सहकर के भी असीम कृपा रही कि हमें अनुभव ही नहीं हुआ कि आप स्वयं का निर्माण किया और समाज की सेवा के लिए अपने राजस्थान प्रान्त के सन्त हैं । हमें आपका सच्चे और अच्छे आपको सर्वात्मना समर्पित किया जो समाज और संस्कृति सदगुरुवर्य की तरह वात्सल्य मिला । कृपा मिली। के सजग प्रहरी हैं। जिनमें आत्म-निष्ठा, तत्परता सत्य- श्रद्धालु समाज ने अपने सद्गुरुवर्य के ऋण से उऋण शोधकता और अन्वेषक वृत्ति है, ऐसे सद्गुरुदेव का जीवन होने के लिए 'अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन' का निश्चय किया चित्र मेरे अन्तर्मन में उभर कर आ रहा है। है। मेरी दृष्टि से यह बहुत ही शुभ निश्चय है, यद्यपि पूज्य गुरुदेव युग पुरुष हैं। आपका विचार समन्वित प्रस्तुत कार्य से सद्गुरुवर्य के ऋण से मुक्त नहीं बना जा आचार और आचार समन्वित विचार आज के युग के जन सकता तथापि श्रद्धावादियों का बोझिल मन कुछ हलकेपन मानस का श्रद्धा का केन्द्र बन गया है। चारों ओर आपश्री का अनुभव करेगा ही। प्रस्तुत ग्रन्थ से जैनधर्म की प्रभाकी विद्वत्ता और प्रवचन कला की धाक है। आपके उज्ज्वल बना होगी। उस जैनधर्म को प्रभावना, जिसके कारण अनन्त चारित्र का आदर है। आप में अहंता और ममता का संसार का सम्यक्त्वोपलब्धि के माध्यम से आत्मा ने छेदन अभाव है। आपने मिथ्या विश्वास, मिथ्या विचार और किया है। मिथ्या आचार का खण्डन कर जन-जीवन को सम्यग्दर्शन, जब भी मुझे श्रद्धय सद्गुरुवर्य का पुनीत स्मरण होता सम्यगज्ञान और सम्यक्चारित्र से युक्त बनाया है। है तब मेरा मस्तक अनन्त श्रद्धा से नत हो जाता है। पूज्य गुरुदेव में अद्भुत आकर्षण शक्ति है, जो भी एक ०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy