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________________ ०२० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : सप्तम खण्ड का सिंचन कर सके, उसे प्रोत्साहित कर सके और मानव-मानव में सत्ता और स्वार्थों को लेकर पनपने वाली संघर्ष परम्परा को सदा के लिए समाप्त कर आत्म-ज्योति का सर्वोत्तम पथ प्रदर्शित कर सके तभी विश्वशान्ति का सृजन सम्भव है। सिद्धान्ततः किसी भी तत्त्व को स्वीकार करने की अपेक्षा उसे जीवन के दैनिक व्यवहार में लाना वांछनीय है । उन्नति और विकास का वास्तविक रहस्य तभी प्रकट हो सकता है जब तत्त्व जीवन में साकार हो, वही परम्परा का रूप ले सकता है। सर्वोच्च निर्दोष और बलिष्ठ जीवन पद्धति मानव ही नहीं प्राणीमात्र के प्रति समत्वमूलक जीवन की दिशा स्थिर कर सकती है। जीवन भी सचमुच आज एक जटिल समस्या के रूप में खड़ा है। साथ ही राजनीति और तर्क द्वारा इसे और भी विषम बनाया जा रहा है। आध्यात्मिक जागति के पथ पर भी प्रहार किये जा रहे हैं। पर आश्चर्य तो इस बात का है कि उन्नतिमूलक बात्मिक तत्त्व साधक तथ्यों को अन्तरंग दृष्टि से देखने का प्रयत्न नहीं किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में सुरक्षित और शान्तिमय जीवन की स्थिति और भी गम्भीर हो जाती है। जीवन को जगत की दृष्टि से सन्तुलित बनाये रखने के लिए विकारों पर प्रहारों का औचित्य है, पर वे संस्कारमूलक होने चाहिए। मान लीजिए परिस्थितिजन्य वैषम्य के कारण आज हिंसा के नाम पर जो अहिंसा पनप रही है उसमें संशोधन अनिवार्य है। दो विश्वयुद्धों के हृदय-विदारक दृश्यों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए राष्ट्रसंघ एवं संयुक्त राष्ट्रसंघ स्थापित हुए, जो हिंसा से विश्व को बचाने के लिए प्रयत्नशील रहे। भयाक्रान्त मानव की रक्षा के लिए आज अहिंसा ही आधारस्तम्भ बन सकती है और इसी से सर्वोन्नति एवं विश्वशान्ति सम्भव है। . भगवान महावीर ने 'एगे आया' आत्मा एक है, कहकर बताया कि सबकी आत्मा एक रूप, एक समान है । 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के अनुसार यदि हम सभी जीवों को अपने समकक्ष एक ही धरातल पर मानें तो हिंसा ही क्यों करें। यह मेरा है, यह उसका है, मेरा लाभ अपेक्षित है, दूसरों का नहीं, ऐसी भावना ही हमें हिंसा की ओर प्रवृत्त करती है। आज के मर्यादाहीन एवं उच्छृखल जीवन में समरसता एवं शान्ति लाने के लिए अहिंसा ही वह आधारशिला है जिस पर परमानंद का प्रासाद खड़ा किया जा सकता है। अहिंसा के परिपार्श्व में भगवान महावीर ने बताया कि प्राणीमात्र जीना चाहता है, कोई मरना नहीं चाहता। सुख सभी के लिए अनुकूल एवं दुःख प्रतिकूल है ।' अहिंसक समाज की सफल संरचना अहिंसा से ही सम्भव है अतः अहिंसा को धर्म का मूल बताया है। हिंसा से हिंसा का विस्तार होता है। जहां हिंसा, सत्ता व दवाब चाहती है वहाँ अहिंसा प्रेम और शान्ति । यह साधकों का साधन ही नहीं वीरों का शस्त्र भी है क्योंकि अहिंसा में कायरता का स्थान नहीं। यही कारण है कि क्षमा को 'वीरों का भूषण' माना गया है। हिंसा को अहिंसा से, क्रोध को क्षमा से एवं अहंकार को नम्रता से जीता जा सकता है। समग्र चैतन्य के साथ बिना भेदभाव के तादात्म्य स्थापित करना ही अहिंसा है जो वस्तुतः अंधकार पर प्रकाश की, घृणा पर प्रेम की एवं वैर पर सद्भाव की विजय का उद्घोष है। स्पष्ट चिन्तन की धारा से भगवान् महावीर ने अहिंसा के सिद्धान्त एवं व्यवहार पक्षों को एकाकार किया। उनके अहिंसादर्शन का संदेश है-पापी से नहीं पाप से घृणा करो। बुरे व्यक्ति एवं बुराई के बीच एक स्पष्ट रेखा है । बुराई सदा बुराई रहती है, कभी भलाई नहीं हो सकती । परन्तु बुरा व्यक्ति यथा अवसर भला भी हो सकता है । मूलत: कोई आत्मा बुरी नहीं होती परन्तु व्यक्ति की वैकारिक प्रवृत्तियाँ, वैर-विरोध, राग-द्वेष, घृणा, कलह आदि हिंसा के रूप ही उसे बुराई की ओर प्रवृत्त करते हैं। वास्तव में अहिंसा नित्य, शाश्वत व ध्रुव सत्य है। जो हिंसा करता है, करवाता है अथवा कर्ता का अनुमोदन करता है, वह अपने साथ अर्थात् अपनी आत्मा के साथ वैरभाव की वृद्धि करता है । 'आय तुले पयासु' अर्थात् सभी जीवों को आत्मवत् मानने का सन्देश देकर महावीर ने जो जीवनधर्म बताया वह अनुकरणीय है। ज्ञान और विज्ञान का सार यही है कि किसी प्राणी की हिंसा न की जाय ।' . महावीर ने हमें शाश्वत सत्य और त्रकालिक तथ्य प्रदान किये हैं जिनकी उपयोगिता आज पहले से भी अधिक है। आज हम मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि में किसी को सताना, अनुचित शासन, बुरी भावना आदि को बुरा मानते हैं परन्तु २५ शताब्दियों पूर्व बंधन, अधिकभार, भक्तपानविच्छेद के रूप में इन्हें हिंसा मानना क्रान्तिकारी परिकल्पना है महावीर की । वर्तमान युग में शोषण, नौकरों से अधिक व अनुचित कार्य कराना आदि कानूनी दृष्टि से दण्डनीय हैं परन्तु उस युग में ऐसी सूक्ष्मदृष्टि से सोचना अकल्पनीय है। इसे देखकर द्रव्याहिंसा के साथ भावहिंसा की कल्पना को जमाने से पर्याप्त आगे का चिन्तन ही कहा जायगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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