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________________ mpoo000000000R SPOR भगवान महावीर और विश्व-शान्ति -श्री गणेशमुनि शास्त्री वर्तमान युग में अध्यात्म की आवश्यकता आज का यग विकास और उत्कर्ष के सर्वोच्च शिखर पर अवस्थित है। विकासोन्मुखी उत्कर्ष की ध्वनि चारों ओर से कर्णगोचर हो रही है, पर इस आवेशपूर्ण परिस्थिति में मानव यह नहीं सोच पा रहा है कि उत्कर्ष और विकास की सीमा क्या है ? किससे सम्बद्ध है? यह एक बुद्धिगम्य तथ्य है कि जब तक योजनाबद्ध और सुनियन्त्रित आदर्शमूलक विकास-पथ का सक्रिय अनुसरण मानव-समाज द्वारा न होगा तब तक वास्तविक उत्कर्ष के उन्नत शिखर पर दृढ़तापूर्वक चरण स्थापित नहीं किये जा सकेंगे। आज उन्नति सीमित है और प्राकृतिक प्रसुप्त शक्तियों के निगढ़ रहस्यों को जान कर मानव ही नहीं, प्राणीमात्र को सुखशान्ति और समृद्धि की ओर गतिमान करना ही विकास या मानवोन्नति समझी जाती है। विज्ञान इसी की परिणति है। यही वैज्ञानिक विकास की पृष्ठभूमि है, पर इसी को अन्तिम साध्य मानने में बुद्धिमत्ता नहीं है। जीवन का लक्ष्य यहीं समाप्त नहीं होता। उसे इस प्रकार के ढाँचे की आवश्यकता है कि वह नित नूतन के प्रति आस्थावान रहते हुए भी स्थायी जगत-आध्यात्मिक क्षेत्र के प्रति उसका केन्द्रबिन्दु लक्षित होना चाहिए। भगवान महावीर की विचार-त्रिवेणी भगवान महावीर ने इस रत्नगर्भा वसुन्धरा पर जन्म लेकर आध्यात्मिक क्षेत्र में परिशीलन एवं मनोमंथन कर जो वैचारिक क्रान्ति की, आज भी उसके स्वर प्रकम्पित हैं। अनेक भौतिक उपलब्धियों के बावजूद आज मानव वास्तविक सुख से वंचित है । वह वर्ग-संघर्ष, शीतयुद्ध, साम्प्रदायिक द्वेष, बेकारी आदि में उलझकर स्वयं की सत्ता भी विस्मृत कर चुका है। ऐसे विकट समय में महावीर के सिद्धान्त प्रकाश-स्तम्भ हैं और हमारा पथ आलोकित कर विश्वशान्ति एवं विश्वबन्धुत्व का संदेश दे रहे हैं। प्रयोग व विश्लेषण के युग में यह विचित्र लगता है कि प्रयोगशाला के अभाव में महावीर ने चिरन्तन सत्यों एवं तथ्यों का प्रकटीकरण कैसे किया ? वस्तुतः उनका जीवन स्वयं ही प्रयोगशाला था और उन्होंने जो कुछ प्राप्त किया, आज भी चिर-नवीन है। महावीर की साधना अनुभूत चिन्तन की आधारशिला पर टिकी थी न कि थोथी कल्पनाओं पर। महावीर की विचार-त्रिवेणी में अहिंसा, अनेकान्त एवं अपरिग्रह की धाराएँ हैं जो हमारा जीवन ही बदलने में समर्थ हैं। आचार में अहिंसा, विचार में अनेकान्त एवं व्यवहार में अपरिग्रह की प्रतिष्ठा कर महावीर ने जीवन-दर्शन को नया आयाम दिया। इनको जीवन में अपनाकर हम विश्व का वर्तमान स्वरूप ही बदल सकते हैं। भारतीय संस्कृति की आत्मा-अहिंसा अहिंसा भारतीय संस्कृति की आत्मा है। वैयक्तिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन का शाश्वत विकास अहिंसा की सफल साधना पर ही अवलम्बित है। जिस प्रकार अहिंसा तत्त्व द्वारा आध्यात्मिक पृष्ठभूमि का पोषण होता है उसी प्रकार जीवन का भौतिक क्षेत्र भी सन्तुलित रह सकता है। कहने की शायद ही आवश्यकता रहती है कि अब वह केवल आन्तरिक जगत के उन्नयन तक ही सीमित नहीं है अपितु राजनैतिक क्षेत्र तक में इसकी प्रतिष्ठा निर्विवाद प्रमाणित हो चुकी है। भयाक्रांत मानव अहिंसा की ओर दृष्टि गड़ाये हुए है। विज्ञान के विकास का खूब अनुभव हो चुका है। अब वह पुनः लौट कर देखना चाहता है कि हमें ऐसे तत्त्व की आवश्यकता है जो मानवता में जीवनी शक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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