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________________ अहिंसा : वर्तमान युग में ११ थोड़ा समाधान मिल जाय । यह बहुत साफ है कि आदमी अपने स्वधर्म पर नहीं हैं। उसने अपने समाज जीवन में जिन प्रतिष्ठा प्रतिमानों को आत्मसात् किया है वही उसका सेकण्ड नेचर-संस्कारित धर्म बन गया है और इसे ही दोनों हाथों से वह थामे हुए है। इसलिए आज हम मनुष्य के चेहरे पर जो अहिंसा देख रहे हैं वह बहुत ऊपर-ऊपर है-- एकदम सतह पर है। यों हिंसा को समर्थन नहीं है । कोई उसकी पैरवी नहीं करता । मारकाट, दंगा-फसाद, जोर-जबर्दस्ती, हत्या, युद्ध मनुष्य की लाचारी भले ही हो, उसके जीवन का मान्य रास्ता नहीं है। वह हिंसा से बचना चाहता है। समाजव्यवस्था के प्रत्येक बिन्दु पर हम इसी बात की चौकीदारी में लगे हैं कि हिंसा कहीं से फूट न पड़े। पंचायतों और जनपदों से लेकर संयुक्तराष्ट्रसंघ तक जितनी व्यवस्थाएँ मनुष्य ने अपने-अपने दायरों में खड़ी की हैं, वे सब इसी उधेड़बुन में हैं कि समाज में शान्ति कायम रहे और आदमी आदमी बना रहे । बल्कि इसी अमनोअमान के लिए हमारे पास पुलिस और फौज की व्यवस्था है। इतनी ज्यादा है कि मनुष्य की सर्वाधिक ताकत इसी में खर्च हो रही है। फिर भी हिंसा जहाँ-तहाँ फूट पड़ती है और यदि सारे संसार के पुलिस थानों के रोजनामचे एकत्र किए जायें तो हम काँप जायेंगे। कबीर को हरिगुण का वर्णन करने के लिए सात समंदर की मसि चाहिए थी, लेकिन पूरे विश्व के चप्पे-चप्पे पर चल रहे अन्याय, अत्याचार और शोषण की कहानी लिखने के लिए सात समंदर की मसि से कुछ नहीं होगा। ये दो चीजें एक साथ कैसे चलेंगी? हिंसा के जितने ब्रीडिंग ग्राउण्ड -उपज स्थान हैं वे कायम रहेंगे, बल्कि दिन-दूने रात-चौगुने बढ़ते जायेंगे और अधिकाधिक पुष्ट होते जाएंगे, साथ ही हम अपने चेहरे, अपनी संस्कृति, अपने सारे धर्म-ग्रन्थ, अपने सम्पूर्ण नीति वचन अहिंसा के चरणों में न्यौछावर करते जायेंगे--तो ये दोनों बातें एकसाथ कैसे चलेंगी ? इसलिए मैं कहता हूँ कि आज का मनुष्य एक ब्रोकन मैन-टूटा हुआ मनुष्य है। एक ही मनुष्य का एक हिस्सा जमकर हिंसा में जी रहा है और उसी का एक हिस्सा अहिंसा का गीत गा रहा है । जब वह अपने-आप में होता है तो उसकी संवेदना पिघलती है, उसकी तृष्णा गलती है, उसकी करुणा सक्रिय होती है। उसे बाहुल्य नहीं चाहिए । वह अपना कौर किसी भूखे के मुंह में देकर संतुष्ट होता है । लेकिन जब वही समाज के बीच होता है, व्यापार-व्यवसाय में होता है, राज-सत्ता में होता है, किसी पद पर आसीन है, किसी मान-मर्यादा में लिप्त है तब वह एकदम बदला हुआ मनुष्य है-तब उसे चाहिए ही चाहिए। जितना पाया है वह कम है। जैसे भी हो चाहिए-एक से एक बढ़िया वस्तु चाहिए। वह समाज के जिस धरातल पर है उससे भी अधिक ऊंचा धरातल उसे चाहिए। इस तरह मनुष्य ने अपनी डबल परसनलिटी–दोहरा व्यक्तित्व रच लिया है। वह अपने-आप में कुछ और है तथा अपने आसपास के संसार में कुछ दूसरा ही आदमी है। हिंसा का काम इस कारण अहिंसा एक मुकाम पर आकर ठिठक गई है। वह इतना ही चल पाई कि काया खुद की हिंसा से बची रह जाय । अहिंसा को रसोईघर में स्थापित करके हम बहुत प्रसन्न हैं कि हमसे अहिंसा निभ गई। हमारा ध्यान इस बात पर गया ही नहीं कि जिस सभ्यता को हम जी रहे हैं, जिस बाहुल्य को हम भोग रहे हैं, वस्तुओं के एक विशाल सागर में तैर रहे हैं, व्यापार-व्यवसाय और समाज-व्यवस्था का जो आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक ढाँचा हमने खड़ा कर लिया है तथा मनुष्यों के बीच आपस में जितना भेद-जाति का, सम्प्रदाय का, रंग का, धर्म का, धन का, सत्ता का और संस्कृति का खड़ा कर लिया है-इस सबने मनुष्य को पारे की तरह बिखेर दिया है। ऐसा टूटा हआ मनुष्य कौन-सी अहिंसा जीयेगा? वह तो अपनी ही चिंता में पड़ा है। उसे अब अपने सिवाय कुछ दूसरा सूझता ही नहीं। लेकिन अहिंसा का तो एक अलग क्षेत्र है। वह संवेदना और सह-अस्तित्व के रथपर चढ़कर ही आयेगी। आप प्यार करते हैं तो मेरा क्रोध गलता है। आप कुछ छोड़ रहे हैं तो मेरा स्वार्थ भी टूटता है। मैं आपकी सहनशीलता के आगे परास्त हूँ। अहिंसा को अपरिग्रह का, त्याग का, संयम का, प्रेम का, करुणा का, परिश्रम का, और निज की तृष्णा को समेट लेने का कड़ा धरातल चाहिए। लेकिन इन्सान अपनी आधुनिक सभ्यता को इस धरातल पर खड़ा नहीं रख सका। उसने जो पटरियाँ बिछाई हैं वे स्वार्थ की और अहंकार की है-इन पटरियों पर अहिंसा की रेल कैसे दौड़ेगी? दूसरी ओर, हमारी वस्तु-निष्ठा ने और आरामदेह जिन्दगी की चाह ने बस्तुओं का एक महासागर रच लिया है। वस्तु, सम्पदा और धन को अपना आराध्य देव घोषित करके मनुष्य ने जिस हिंसा को जन्म दिया है वह बहुत विषैली है। धीरे-धोरे उसने पूरी सृष्टि पर अपना विष फैलाया है। वैज्ञानिकों को चिंता हुई है कि यदि इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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