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________________ ० Jain Education International अहिंसा : वर्तमान युग -माणकचन्द कटारिया में **** मनुष्य के साथ और इस पूरी सृष्टि के साथ अहिंसा इस तरह जुड़ी है कि उसे आप बाँट नहीं सकते । अभी युग अहिंसा का चल रहा है और कल हिंसा का युग आने वाला है या हिंसा का युग बीत गया और अब अहिंसा की बारी आई है, ऐसा कैसे कहेंगे ? क्रिकेट के खेल की तरह कभी हिंसा की इनिंग ( पारी) और कभी अहिंसा की इनिंग नहीं चलती | अहिंसा मनुष्य के जीवन की तर्ज है, जो उसके रक्त में बिंधी है । अपने उन्माद में आदमी बहुत भड़ककर अपनी और सामने वाले की तबाही करके भी जब सहज होता है तो शान्ति की खोज करने लगता है। उसके भीतर करुणा के, प्रेम के, संवेदना के अंकुर फिर-फिर उग आते हैं । यही मनुष्य के जीवन का मर्म है। बल्कि, बहुत ध्यान से आप देखें तो पूरी सृष्टि में जीवन के तार करुणा से जुड़े हैं, संवेदना से जुड़े हैं। फिर भी कुछ ऐसा तो हो ही गया है कि हमें अहिंसा पाने के लिए, जीवन में उसे प्रतिष्ठित करने के लिए और हमारे चारों ओर समाज में धधक रही हिसा को बुझाने के लिए लगातार साधना करनी पड़ रही है। वालों का एक अलग खेमा है । वे जीव दया वाले हैं। फूंक-फूंक कर जीवन जी रहे हैं। रात में नहीं खाते । मांस, मछली; अण्डा तो दूर, बहुत-सी तरकारियाँ भी नहीं छूते । कई चीजें छोड़ दी हैं । बहुत से डू-नाट्स नहीं करने के बन्धन स्वीकारते हैं। धीरे-धीरे अहिंसा के बारे में हमारा ऐसा ख्याल बना कि काया को हिंसा से बचाओ। काया हिंसा से बच गई तो अहिंसा सध जायगी। इस एक मामले से हम अहिंसा वाले बहुत लम्बा रास्ता नाप गये। खूब चले हैं । लेकिन लगता है कि केवल ऊपर-ऊपर ही चलते रहे हैं। नतीजा यह है कि हमारे हाथ जो अहिंसा आई वह केवल 'सतही अहिंसा' है। एकदम ऊपर की अहिंसा । मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन में निहत्था होता जा रहा है। उसके हाथ से तलवार छूट गई है और उसकी पीठ पर से तरकश उतर गया है। उसके मुँह का कौर निरामिष बनता जा रहा है। जिनका नहीं बन पाया है वे भी धीरे-धीरे निरामिष हो जायेंगे। मनुष्य की सभ्यता ने आपस के व्यव - हार में मिठास घोली है । हम अपने विवाद आपसी बातचीत, समझाइश, तर्क-चर्चा के धरातल पर ले आये हैं । बहुत गुस्सा होकर भी पिस्तौल नहीं तानते। हत्याओं का प्रतिशत इतना नगण्य है कि मनुष्य अहिंसक होने का दावा कर सकता है। पैराडाक्स - विरोधाभास भीतर तो ईर्ष्या पैनी लेकिन यह एक परत है-बहुत पतली झिल्ली जो हमें अहिंसक होने का आभास दे रही है। सारा व्यापार हिंसा का चल रहा है। बल्कि हिंसा बहुत खुलकर खेल रही है। मनुष्य की तृष्णा बढ़ी है, हुई है, स्पर्धा ने घेरा है उसे, स्वार्थ ने नए आयाम पाये हैं, सत्ता-धन-यश के त्रिभुज पर हमारी आँखें टिक गई हैं। एक ऐसी हाय रआरकी श्रेणीबद्धता में हम उलझ गये हैं कि शोषण, अन्याय और अहंकार की श्रृंखला टूटती ही नहीं । मनुष्य भयभीत है । वह इस दुबिधा में पड़ा है कि इस पटरी से उतर कर कहाँ जाय। जरा चूका कि मानव समाज के बहुत ही निचले धरातल पर फेंक दिया जायगा । इसलिए कोई चूकना नहीं चाहता - जैसे भी हो अपने लिए समाज का ऊँचा धरातल बनाये रखना चाहता है । वस्तुओं के बाहुल्य ने और बाहूल्य के साथ जुड़ी सामाजिक प्रतिष्ठा ने मनुष्य को बहुत तोड़ा है। हम टूट कर दो समानान्तर पटरियों पर दौड़ लगा रहे हैं । एक पटरी पर दौड़कर संग्रह कर रहे हैं और दूसरी पटरी पर चलकर उसमें से थोड़ा बांट आते हैं ताकि करुणा को, त्याग को, संयम को और जिसे हमने 'धर्म' नाम दे रखा है उसे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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