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________________ श्री पुजारमुनि अभिनन्दन प्रम्य : सप्तम खण्ड बढ़ा है, आर्थिक असमानता की खाई विस्तृत हुई है, फिर भी लगता है कि महावीर द्वारा दिया गया समाधान आज भी अधिक व्यावहारिक और उपयोगी है क्योंकि कानून के दवाब से व्यक्ति बचने का प्रयत्न करता है, पर स्वेच्छा से उसमें जो आत्मानुशासन आता है, वह अधिक प्रभावी बनता है। (३) साधन-शुद्धि पर बल-भगवान महावीर ने आवश्यकताओं को सीमित करने के साथ-साथ जो आवश्यकताएँ शेष रहती हैं, उनकी पूर्ति के लिए भी साधन शुद्धि पर विशेष बल दिया है। महात्मा गांधी भी साध्य की पवित्रता के साथ-साथ साधन की पवित्रता को भी महत्व देते थे । अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि व्रत, साधन की पवित्रता के ही प्रेरक और रक्षक हैं । इन व्रतों के पालन और इनके अतिचारों से बचने का जो विधान है, वह भाव-शुद्धि का सूचक है । अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यक्ति को स्थूल हिंसा से बचना चाहिए। उसे ऐसे नियम नहीं बनाने चाहिए जो अन्याययुक्त हों, न ऐसी सामाजिक रूढ़ियों के बन्धन स्वीकार करने चाहिए जिनसे गरीबों का अहित हो । अइभार (अतिभार), अतिचार इस बात पर बल देता है कि अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से निश्चित समय से अधिक काम न लिया जाय, न पशुओं, मजदूरों आदि पर अधिक बोझ लादा जाए और न बाल-विवाह, अनमेल विवाह और रूढ़ियों को अपनाकर जीवन को भारभूत बनाया जाए। भत्त-पाण-विच्छेद अतिचार से यह तथ्य गृहीत होता है कि व्यक्ति अपना व्यापार इस प्रकार करे कि उससे किसी का भोजन व पानी न छीना जाए। सत्याणुव्रत में सत्य के रक्षण और असत्य से बचाव पर बल दिया गया है। कहा गया है कि व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए कन्नालीए अर्थात् कन्या के विषय में, गवालीए अर्थात् गौ के विषय में, भोमालीए अर्थात् भूमि के विषय में, जासाबहारे अर्थात् धरोहर के विषय में झूठ न बोले कूडसक्खिजे अर्थात् झूठी साक्षी न दें। इसी प्रकार सत्यव्रत के अतिचारों से बचने के लिये कहा गया है कि बिना विचारे एकदम किसी पर दोषारोपण न करें, दूसरों को झूठा उपदेश न दें, झूठे लेख, झूठे दस्तावेज न लिखें, न झूठे समाचार या विज्ञापन आदि प्रकाशित करायें और न झूठे हिसाब आदि रखें। अस्तेय व्रत की परिपालना का, साधन शुद्धता की दृष्टि से विशेष महत्व है। मन, वचन और काय द्वारा दूसरों के हकों को स्वयं हरण करना और दूसरों से हरण करवाना चोरी है। आज चोरी के साधन स्थल से सूक्ष्म बनते जा रहे हैं । सेंध लगाने, डाका डालने, ठगने, जेब काटने वाले ही चोर नहीं हैं बल्कि खाद्य वस्तुओं में मिलावट करने वाले, एक वस्तु बताकर दूसरी लेने देने वाले, कम तोलने और कम नापने वाले, चोरों द्वारा हरण की हुई बस्तु खरीदने वाले, चोरों को चोरी की प्रेरणा करने वाले, झूठा जमा-खर्च करने वाले, जमाखोरी करके बाजारों में एकदम से वस्तु का भाव वटा या बढ़ा देने वाले, झूठे विज्ञापन करने वाले, अवैध रूप से अधिक सूद पर रुपया देने वाले भी चोर हैं। भगवान महावीर ने अस्तेय व्रत के अतिचारों में इन सबका समावेश किया है। इन सूक्ष्म तरीकों की चौर्यवृत्ति के कारण ही आज मुद्रास्फीति का इतना प्रसार है और विश्व की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। एक ओर काला धन बढ़ता जा रहा है तो दूसरी ओर गरीब अधिक गरीब बनता जा रहा है । अर्थव्यवस्था के संतुलन के लिये आजीविका के जितने भी साधन हैं, पूंजी के जितने भी स्रोत हैं उनका शुद्ध और पवित्र होना आवश्यक है। इसी संदर्भ में भगवान महावीर ने ऐसे कार्यों द्वारा आजीविका के उपार्जन का निषेध किया है जिनसे पाप का भार बढ़ता है और समाज के लिए जो अहितकर हों। ऐसे कार्यों की संख्या शास्त्रों में पन्द्रह गिनाई गयी है और इन्हें 'कर्मादान' कहा गया है। इसमें से कुछ कर्मादान तो ऐसे हैं जो लोक में निन्द्य माने जाते हैं और जिनके करने से सामाजिक प्रतिष्ठा नष्ट होती है। उदाहरण के लिए, जंगल को जलाना (इंगालकम्मे), शराब आदि मादक पदार्थों का व्यापार करना (रसवाणिज्जे), अफीम, संखिया आदि जीवन नाशक पदार्थों को बेचना (विसवाणिज्जे), सुन्दर केश वाली स्त्रियों का क्रय-विक्रय करना (केसवाणिज्जे), वनदहन करना (ववग्गिदावणियाकम्मे), असज्जनों अर्थात् असामाजिक तत्त्वों का पोषण करना (असईजणपोसणियाकम्मे) आदि कार्यों को लिया जा सकता है। साधन-शुद्धि में विवेक, सावधानी और जागरूकता का बड़ा महत्व है। गृहस्थ को अपनी आजीविका के लिये आरम्भज हिंसा आदि करनी पड़ती है। यह एक प्रकार का अर्थदण्ड है जो प्रयोजन विशेष से होता है पर बिना किसी प्रयोजन के निष्कारण ही केवल हास्य, कौतूहल, अविवेक या प्रसादवश जीवों को कष्ट देना, सताना अनर्थदण्ड है । इस प्रवृत्ति से व्यक्ति को बचना चाहिए और विवेकपूर्वक अपना कार्य-व्यापार सम्पादित करना चाहिए। . जनदर्शन में साधन शुद्धि पर विशेष बल इसलिये भी दिया गया है कि उससे व्यक्ति का चरित्र प्रभावित होता है। 'जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन' सूक्ति इस प्रसंग में विशेष अर्थ रखती है। बुरे साधनों से एकत्र किया हुआ धन अन्ततः व्यक्ति को दुर्व्यसनों की ओर ढकेलता है और उसके पतन का कारण बनता है। शास्त्रकारों ने इसलिये खाद्य शुद्धि और खाद्य-संयम पर विशेष बल दिया है । तप के बारह प्रकारों में प्रथम चार तप-अनशन, ऊनोदरी, मिक्षांचर्या ०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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