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________________ जनदर्शन में समतावादी समाज-रचना के आर्थिक तस्व . o 0 इस प्रकार की मर्यादा से व्यक्ति अनावश्यक संग्रह और शोषण की प्रवृत्ति से बचता है। (२) भगवान महावीर का दूसरा सूत्र यह है कि विभिन्न दिशाओं में आने-जाने के सम्बन्ध में मर्यादा कर यह निश्चय किया जाये कि मैं अमुक स्थान से अमुक दिशा में अथवा सब दिशाओं में इतनी दूर से अधिक नहीं जाऊँगा। इस मर्यादा या निश्चय को दिक्परिमाणवत कहा जाता है। इस मर्यादा से वृत्तियों का संकोच होता है, मन की चंचलता मिटती है और अनावश्यक लाभ या संग्रह के अवसरों पर स्वैच्छिक रोक लगती है। प्रकारान्तर से दूसरों के अधिकार-क्षेत्र में उपनिवेश बसा कर लाभ कमाने की अथवा शोषण करने की वृत्ति से बचाव होता है। आधुनिक युग में प्रादेशिक सीमा, अन्तर्राष्ट्रीय सीमा, नाकेबन्दी आदि की व्यवस्था इसो व्रत के फलितार्थ हैं। क्षेत्र सीमा का अतिक्रमण करना आज भी अन्तर्राष्ट्रीय कानून की दृष्टि में अपराध माना जाता है । तस्कर वृत्ति इसका उदाहरण है। . (३) भगवान महावीर ने तीसरा सूत्र यह दिया कि मर्यादित क्षेत्र में रहे हुए पदार्थों के उपभोग-परिभोग की मर्यादा भी निश्चित की जाए । दिक्परिणामव्रत के द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर का क्षेत्र एवं वहाँ के पदार्थादि से तो निवृत्ति हो जाती है पर यदि मर्यादित क्षेत्र के पदार्थों के उपभोग की मर्यादा निश्चित नहीं की जाती तो उससे भी आवश्यक संग्रह का अवसर बना रहता है। अतः उपभोग-परिभोगपरिमाणवत की विशेष व्यवस्था की गयी है। जो एक बार भोगा जा चुकने के पश्चात् फिर न भोगा जा सके, उस पदार्थ को भोगना, काम में लेना, उपभोग है, जैसे भोजन, पानी आदि; और जो वस्तु बार-बार भोगी जा सके, उसे भोगना परिभोग है; जैसे वस्त्र, बिस्तर आदि । उपभोग-वस्तुओं में वे वस्तुएँ आती हैं जिनका होना शरीर-रक्षा के लिए आवश्यक है। परिभोग-वस्तुओं में उन पदार्थों की गणना है जो शरीर को सुन्दर और अलंकृत बनाते हैं अथवा जो शरीर के लिए आनन्ददायी माने जाते हैं। शास्त्रकारों ने उपभोग्य-परिभोग्य वस्तुओं को २७ भागों में विभक्त किया है। इस प्रकार की मर्यादा का उद्देश्य यही है कि व्यक्ति का जीवन सादगीपूर्ण हो और वह स्वयं जीवित रहने के साथ-साथ दूसरों को भी जीवित रहने का अवसर और साधन प्रदान कर सके। (४) भगवान महावीर ने चौथा सूत्र यह दिया है कि व्यक्ति प्रतिदिन अपने उपभोग-परिभोग में आने वाली वस्तुओं की मर्यादा निश्चित करे और अपने को इतना संयमशील बनाये कि वह दूसरों के लिए किसी भी प्रकार बाधक न बने। दिक्परिमाण और उपभोग-परिभोगपरिमाणवत जीवन भर के लिए स्वीकार किये जाते हैं। अतः इनमें आवागमन का जो क्षेत्र निश्चित किया जाता है तथा उपभोग-परिभोग के लिए जो पदार्थ मर्यादित किये जाते हैं, उन सबका उपयोग वह प्रतिदिन नहीं करता है। इसीलिए एक दिन-रात के लिए उस मर्यादा को भी घटा देना, आवागमन के क्षेत्र और भोग्योपभोग्य पदार्थों की मर्यादा कम कर देना, देशावकाशिकव्रत है। अर्थात् उक्त व्रतों में जो अवकाश रखा है, उसको भी प्रतिदिन संक्षिप्त करते जाना। - श्रावक के लिए प्रतिदिन चौदह नियम चिन्तन करने की जो प्रथा है वह इस देशाबकाशिक व्रत का ही रूप है । शास्त्रों में वे नियम इसप्रकार कहे गये हैं सचित्त बब्व विग्गई, पन्नी ताम्बूल वत्थ कुसुमेषु । वाहण सयण विलेवण, बम्भ दिसि नाहण भलेषु ॥ अर्थात्-१. सचित्त वस्तु, २. द्रव्य ३. विषय, ४. जूते-खड़ाऊँ, ५. पान, ६. वस्त्र, ७. पुष्प, ८. वाहन, ६. शयन, १०. विलेपन, ११. ब्रह्मचर्य, १२. दिशा, १३. स्नान और १४. भोजन । इन नियमों से व्रत विषयक जो मर्यादा रखी जाती है, उसका संकोच होता है और आवश्यकतायें उत्तरोत्तर सीमित होती हैं। उपर्युक्त चारों सूत्रों में जिन मर्यादाओं की बात कही गयी है वह व्यक्ति की अपनी इच्छा और शक्ति पर निर्भर है। भगवान महावीर ने यह नहीं कहा कि आवश्यकतायें इतनी-इतनी सीभित हों। उनका संकेत इतना भर है कि व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार आवश्यकतायें सीमित करे, इच्छायें नियंत्रित करे क्योंकि यही परम शान्ति और आनन्द का रास्ता है । आज की जो राजनैतिक चिन्तनधारा है उसमें भी स्वामित्व और आवश्यकताओं को नियंत्रित करने की बात है । यह नियमन, नियंत्रण और सीमांकन विविध कर पद्धतियों के माध्यम से कानून के तहत किया जा रहा है । यथा-आयकर, सम्पत्तिकर, भूमि और भवन कर, मृत्युकर और नागरिक भूमि सीमांकन एवं विनियमन अधिनियम (अरबन लैण्ड सीलिंग एण्ड रेग्युलेशन एक्ट) आदि । र भगवान महावीर ने अपने समय में, जबकि जनसंख्या इतनी नहीं थी, जीवन की जटिलतायें भी कम थीं, तब यह व्यवस्था दी थी। उसके बाद तो जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि हुई है, जीवन पद्धति जटिल बनी है, आर्थिक दवाब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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