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________________ प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन ३५ . साधु कहावन कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर । कियों में से सत्य की अन्वेषणा करते हए नेत्र, जब मुनि चढ़े तो चाखे प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥ श्री प्रवचन मुद्रा में विशाल जन-मेदिनी के समक्ष उप वस्तुतः साधु बनना बहुत ही कठिन है और फिर स्थित होते हैं उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व साधना के क्षेत्र में निरन्तर आगे बढ़ते रहना और भी दिशा से सूर्य उदय हो रहा है और अपने दिव्य प्रकाश से कठिन है। उपाध्यायश्री साधना के क्षेत्र में निरन्तर आगे सभी को भर रहा है और उनके अज्ञान-अन्धकार को नष्ट बढ़ते रहे हैं, इसलिए ये हमारे वन्दनीय हैं, अर्चनीय हैं। कर रहा है। सन्त का जीवन परमार्थ का जीवन है । स्वयं कष्ट पूज्य उपाध्याय श्री यद्यपि स्थानकवासी परम्परा के सहन कर दूसरों के जीवन का निर्माण करना उनके जीवन एक सन्त रत्न हैं, किन्तु वे परम्परा से बन्धे हुए नहीं हैं। का संलक्ष्य होता है। वे अपने कष्ट को नहीं, किन्तु संसार उनका चिन्तन वीतराग वाणी का चिन्तन है, उनके सन्निके प्राणियों को कष्ट से आकुल-व्याकुल देखकर सिहर कट बैठने वाले को ऐसा ज्ञात होता है कि वह आध्याउठते हैं। उनके कष्टों को मिटाने के लिए वे सतत पुरु- त्मिक कल्पवृक्ष की छाया में बैठा है। वे आडम्बर और षार्थ करते हैं । कबीर ने ठीक ही कहा है पाखण्ड से कोसों दूर हैं । सम्यक् साधना ही उनकी साधना "परमारथ के कारणे साधुन धरा शरीर" का संलक्ष्य है। श्रमणों का जीवन खाण्डे की प्रखर धार के समान है, गुरुदेव श्री आगम के मर्मज्ञ विद्वान् हैं। उन्होंने वे आत्मार्थी हैं, आत्मानुसन्धानी हैं और साथ ही समाज के आगम-सिन्धु का महा मंथन किया है। उस महामंथन से हित के लिए जागरूक हैं। उनकी मधुर मुसकान में समा- जो अमृत निकला वे प्रवचनों के द्वारा श्रोताओं को प्रदान धान है, वाणी में समन्वय का अनाहत नाद है । उनका करते हैं। बात-बात में वे आगम के गहन तत्त्व प्रतिपादन प्रत्येक कदम मानवता की मंगल मुस्कराहट है, और प्रत्येक करते हैं, साथ ही मनोविनोद भी। वे शिशु से सरल हैं शब्द जीवम को अभिनव दृष्टि प्रदान करने वाला है। वे और शिशु के समान जिज्ञासु भी हैं । शैशव का अद्भुत भुजंगों के बीच में रहे हुए केतकी और केवड़े के फूल के सारल्य उनके व्यक्तित्व का अंग है । वृद्धों में वह रस समान हैं, जो अपनी अनन्त सुवास से जन-मन को मुग्ध कहाँ जो बच्चों में है ? वे बच्चों से बातचीत करते हैं। करते हैं। बच्चों की ताजगी लेते हैं । अंग्रेजी की वह कहावत सदगुरुवर्य उपाध्याय श्री अड़सठ वर्ष के हो चुके हैं, "Child is the father of man" के मर्म को उन्होंने किन्तु उनका तेजोमय व्यक्तित्व अग्नि-शिखा के समान रात- हृदयंगम कर लिया है। दिन दहकती ज्ञान देह को देखकर कोई भी व्यक्ति विस्मय गुरुदेव उपाध्याय श्री के दीक्षा स्वर्ण जयन्ती पर मेरी विमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकता । एक सहज मुस्कराहट, मनोकामना है कि वे विश्व को ज्ञान रूपी अंजन सदा निर्द्वन्द्व मुखमण्डल, विशाल भव्य भाल, ज्ञान की खिड़- आंजते रहे और मानव को सदा पथ-प्रदर्शन करते रहें। जीवन के निर्माता 0 श्री प्रवीणमुनि जी पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज बहुत ही प्रसन्नता हुई कि मेरे महान् उपकारी, जीवन के का मुझ पर महान् उपकार है। उनके मंगलमय प्रवचन को निर्माता पूज्य गुरुदेव श्री का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो श्रवणकर मेरे मन में संयम साधना के प्रति रुचि जागृत रहा है । पूज्य गुरुदेव श्री का जीवन त्याग और वैराग्य का हुई । और पूज्य गुरुदेव श्री के आदेश को स्वीकार कर जीवन है । संयम, साधना, तप, आराधना का जीवन है। मुझे दीक्षा की अनुमति प्रदान की। दीक्षा के पश्चात् ऐसे महापुरुष का अभिनन्दन करना हमारा कर्तव्य है। गुरुदेव के दर्शनों का सौभाग्य मुझे उदयपुर में मिला, मेरी यही अभिलाषा है पूज्य गुरुदेव श्री पूर्ण स्वस्थ रहकर उसके बाद गुरुदेव श्री का चातुर्मास जोधपुर, अजमेर, हमें सदा सर्वदा अपना मंगलमय आशीर्वाद प्रदान करते अहमदाबाद, पूना, रायचूर और बेंगलोर होने से मुझे रहें जिससे हमारा जीवन निरन्तर साधना की ओर बढ़ता दर्शनों का लाभ नहीं मिल सका, क्योंकि मैं आपश्री की रहे। आज्ञा से राजस्थान में ही रह गया। मुझे यह जानकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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