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________________ ० Jain Education International ३४ श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ यशस्वी और तेजस्वी सन्त श्री राजेन्द्र मुनि, शास्त्री परमश्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज अज्ञानान्धकार की सघन रात्रि में जगमगाता प्रकाश लेकर अवतीर्ण हुए हैं। जब जन-जन का अन्त मनस जड़ता की गहरी नींद में सोया हुआ था। आपने उस गहन अंधकार की गोद में सोये हुए व्यक्तियों को सहलाया। जागृत व्यक्तियों को पथ का परिज्ञान कराया, जो पथिक थे उन्हें अभिनव आलोक दिखाया और जो आलोक से आलोकित पथ की ओर बढ़ रहे थे उन्हें ऐसा आभास होने लगा कि हम अपने लक्ष्य के सन्निकट पहुँच गये हैं अतः श्रद्धालु जन-मानस आपको अज्ञानान्धकार में सम्यक् ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाला महापुरुष मानता है। आध्या त्मिक उत्कृष्ट साधना से सर्वप्रथम आपने अपने आपको निखारा उसके पश्चात् अपने अनुभव के अमृत को सर्व जीवों की रक्षा रूप दया के लिए जन-जन को बाँटा, आप श्री के इस अक्षय कोष को पाकर जनमानस आल्हादित है । आपने अपने शिष्य और शिष्याओं में अध्ययन की प्रगति के लिए प्रबल पुरुषार्थ किया। आगम, दर्शन, साहित्य का गंभीर अध्ययन कराया और साहित्य की विविध विधाओं में लिखने के लिए उत्प्रेरित किया जिसके फलस्वरूप श्रेष्ठ साहित्य का सृजन हुआ । साधना से कतराने वालों को जप व ध्यान की साधना बताकर उनमें साहस का संचार किया। नवकार महामंत्र के जाप में कितनी अद्भुत और अनूठी शक्ति है जिसके जाप से पाप ताप और संताप मिटकर आत्म शान्ति मिलती है, आधुनिक युग में जो तार्किक हैं, जिनमें धार्मिक क्रियाकाण्डों के प्रति किञ्चित् भी श्रद्धा नहीं है उनके अन्त मनस में नवकार महामंत्र के प्रति श्रद्धा जागृत की । भारत के विविध प्रान्तों में हजारों मील की पदयात्रा कर उन्होंने बताया कि गति ही जीवन है, इसलिए चले चलो, बढ़े चलो, जो चलता है उसका भाग्य चलता है । अनन्त गगन में चमकते हुए चांद सितारे अपनी गति से बढ़ रहे हैं, ठुमक ठुमक कर पवन भी चल रहा है, विभिन्न रूपों में बहती हुई जल धाराएँ विश्व के लिए वरदान के रूप में है तो हमें क्यों एक स्थान पर स्थिर होना चाहिए। पूज्य गुरुदेव श्री जहाँ बहिर यात्रा करते हैं वहाँ उनकी अन्तर्यात्रा भी निरन्तर चलती रहती है। जहाँ बहिर् यात्रा से उन्होंने जागतिक अनुबंधों का विस्तार किया है वहां अन्तर्यात्रा से अन्तश्चेतना का विकास किया है । श्रद्धय सद्गुरुवर्य के जीवन में 'सत्यं शिवं और सुन्दरम्' का सुन्दर संगम हुआ है । वे जितने तत्त्वद्रष्टा हैं, उससे भी अधिक वे साधक हैं और कलाकार हैं, कुछ चिन्तक साधना और कला को पूर्व और पश्चिम की तरह परस्पर विरोधी मानते हैं किन्तु गुरुदेव कला को साधना में बाधक नहीं, अपितु साधक मानते हैं उनके मस्तिष्क में जहाँ चिन्तन की निर्मल गंगा प्रवाहित हैं, वहां हृदय में साधना की सरस्वती बह रही तथा हाथ और पैरों में कला की कालिन्दिनी अठखेलियां कर रही हैं। और श्रद्धय सद्गुरुदेव स्थानकवासी परम्परा के यशस्वी तेजस्वी सन्त हैं । हमें आपश्री के कुशल नेतृत्व में पूर्ण विश्वास है । आपश्री के मार्गदर्शन में वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ अधिक से अधिक पल्लवित और पुष्पित होगा और हमारा भी अत्यधिक विकास होगा । मैं सर्वप्रथम सद्गुरुदेव श्री की सेवा में मेरी मातृषी प्रकाशवती जी की प्रेरणा से प्रेरित हो अपने ज्येष्ठ भ्राता श्री रमेश मुनि जी के साथ अजमेर शिखर सम्मेलन के समय उपस्थित हुआ । सद्गुरुवर्य उपाध्याय पूज्य पुष्कर मुनि जी के दर्शन कर मेरे मानस में कबीर की वे पंक्तियाँ स्वर्णाक्षर की भाँति चमकने लगीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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