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________________ प्राचीन जंनाचार्य और रस- सिद्धान्त ६१६ शब्दों के प्रलोभन में [पढ़कर ] रसामृत से पराङ्मुख हो जाते हैं [ अर्थात् रस की उपेक्षा कर, केवल लेप आदि के निर्वाह के लिए शब्द प्रधान तुकबन्दी में लग जाते हैं] वे विद्वान् [शब्द-पटुता के कारण विद्वान् तो कहे जा सकते हैं किन्तु वे 'कवीन्द्राणां कथा न अर्हन्ति'] उत्तम कवि नहीं कहा सकते हैं ।" रामचन्द्र गुणचन्द्र रस प्रवाहरहित और श्लेष अलंकारयुक्त वाणी को कर्कश और सहृदय हृदयाह्लाद को उत्पन्न करने में असमर्थ मानते हुए उसकी दुभंग स्त्रियों से तुलना करते हैं । ' उक्त धारणाओं के आधार पर जहाँ यह निष्कर्ष निकलता है कि रामचन्द्र गुणचन्द्र काव्य में रस- निर्वाह को ही उसकी उत्कृष्टता की कसौटी मानते हैं और उसके निर्वाह करने वाले कवि को ही उत्तम कवि कहते हैं, वहीं यह भी निकलता है कि रसयुक्त काव्य अलोकिक और आह्लादकारी ही नहीं होता बल्कि रचना और आस्वादयिता दोनों के लिए अमृत की तरह जीवनदायी भी होता है । इसके विपरीत अलंकारों का प्रयोग शब्द- केलि मात्र है और शब्द-पटु विद्वानों के द्वारा व्यवहार्य है। रस निर्वाह की तुलना में अलंकार निर्वाह का कार्य सरल है । इससे रस की महनीयता और उसकी अनिवार्यता का सहजबोध तो होता है, किन्तु अलंकारादियुक्त काव्य का निषेध नहीं होता उसकी कोटि निर्धारित होती है। वह उत्तम काव्य नहीं है क्योंकि उसके रचयिता 'उत्तम कवि' नहीं हैं बल्कि 'विद्वान्' हैं । विद्वत्ता और कवित्व के बीच की सीमारेखा शब्द एवं रस प्रयोग से निश्चित होती है । शब्दचमत्कार कोश-ज्ञान से सम्बन्ध रखता है और इसीलिए शब्द-ज्ञान पर्यन्त स्थिर रहता है और क्षणिक आनन्ददायी है, जबकि रस का सीधा सम्बन्ध हृदय से है, मानव की असीम भाव शक्ति से है और इसीलिए रसयुक्त काव्य का प्रभाव हल्के चमत्कार और बौद्धिक ज्ञान या बौद्धिक व्यायाम सापेक्ष नहीं है, उससे युक्त काव्य की रचना भी इसीलिए सरल नहीं है । गोस्वामीजी ने 'रामचरितमानस' में इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए "भावभेद रसभेद अपारा" कहा है। काव्य की एकाध पंक्ति में रस-भाव का निर्वाह कर लेना और बात है, सम्पूर्ण प्रबन्ध या नाटक में नाना भावों एवं रसों का निर्वाह करते हुए किसी एक अङ्गीरस का समायोजन करना खेल नहीं है । अलंकार-योजना की तरह वह उक्तिचमत्कार - निर्भर नहीं है, अन्तः वृत्ति-निर्भर होने से अनन्त अज्ञात पथों में सञ्चार के सदृश अतः दुष्कर कार्य है । काव्य की आनन्दवादी व्याख्या से दुःखी होकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने काव्य को मनोरञ्जन की हल्की वस्तु मान लिए जाने के भय से खेद व्यक्त किया है, किन्तु रामचन्द्र गुणचन्द्र ने उस आनन्द और आह्लाद की रक्षा करते हुए भी रसवाही काव्य को मनोरंजन की वस्तु नहीं माना और वैसा होने के कारण कोई दुःख व्यक्त नहीं किया, उलटे रसवाही काव्य की श्रेष्ठता का एक अच्छा और मौलिक तर्क प्रस्तुत करके उसके स्वरूप के प्रति निष्ठा व्यक्त की है। आज भी जो बौद्धिक कविता को कविता मानते हैं और रसवाही कविता को उपहास की दृष्टि से देखते हैं, उनके सामने यह तर्क बिना निष्प्रभ हुए प्रस्तुत किया जा सकता है । वास्तविकता यह है कि रामचन्द्र गुणचन्द्र के उक्त कथनों से इतना ही तात्पर्यं ग्रहण किया जाना चाहिए कि काव्य में रस का निर्वाह सरल नहीं, एक दुष्कर कार्य है जिसे नाटक में अपेक्षाकृत अधिक अच्छे ढंग से पूरा किया जा सकता है । नाट्य में रस की अनिवार्यता है, किन्तु मुक्तकादि अलंकार - निर्वाह से भी काम चल सकता है, और शब्द प्रयोग पर निर्भर रहने के कारण उनके प्रयोग में रस- निर्वाह की अपेक्षा सरलता रहती है। ऐसा नहीं कि मुक्तकादि में रस होता या हो ही नहीं सकता, किन्तु उनमें विभावादि समस्त सामग्री के संयोजन का कभी अवकाश नहीं भी रहता । और यदि गद्य कवियों की प्रतिभा का निकष है तो वह भी इसी दृष्टि से कि उसमें रस भाव का परिपोष करना उतना सरल नहीं है जितना अलंकार ले आना है । यों पण्डितराज जगन्नाथ कितना भी कहें कि प्रतिभाशाली की सर्वत्र समान गति होती है. किन्तु जैसे काव्य के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि मुक्तक में उक्ति चमत्कार और अलंकार निर्वाह सहजप्राय है और छोटे-छोटे छन्दों में कोई-कोई बिहारी जैसा श्रेष्ठ कवि ही रस निर्वाह की करामात दिखा सकता और गागर में सागर भर सकता है, वैसे ही यह भी स्पष्ट है कि बहुमुखी और सर्वत्र समान प्रतिमा के धनी लेखक भी कठिनाई से ही हुआ करते हैं। पण्डितराज ने जहाँ अपनी रचना-शक्ति की प्रशंसा में सर्वत्र समान प्रतिमा सञ्चार की बात कही है, वहीं वे अपने को सामान्य मृग से भिन्न करते हुए कस्तूरिका जनन' में क्षम मृग' भी कहते हैं कस्तूरीमृगों की दुर्लभता अज्ञात नहीं है, अतः विशिष्ट प्रतिभावानों की स्थिति की बात छोड़ दें तो काव्य-रचना में सुकरता दुष्करता का भेद अस्वीकार्य नहीं ठहरता । रस-विचार के प्रसंग में 'नाट्यदर्पणकार' रसों का पूर्वापर क्रम तो वही निश्चित करते हैं जो भरत द्वारा किया गया है और उनकी उस पर व्याख्या भी भरत के कथन पर अभिनवगुप्त द्वारा की गयी व्याख्या का अनुगमन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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