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________________ प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन ३१ . ० ० न कुछ संस्मरण मेरे श्रद्धास्पद : उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी महाराज Coo.: .... - मुनि श्री सुमेरचन्द्र बात बहुत पुरानी है। आज से लगभग २५ साल जब मिले, जिससे मिले, दिलखोल कर मिले । पहले की, जब अखिल भारतीय स्थानकवासी साधु-सम्मेलन __इससे बढ़कर और खूबी, कोई इन्सां में नहीं। सादड़ी के भव्य प्रांगण में होने जा रहा था। हम सब वाणी से ही नहीं, मनुष्य के व्यवहार से उसका मुनियों के कदम सादड़ी की ओर सरपट दौड़े जा रहे थे। व्यक्तित्व देखा-परखा जाता है। व्यवहार ही जीवन का मन में उत्साह था, प्रसन्नता थी, वर्षों पुरानी साम्प्रदायिकता दर्पण है। उसी में ही तो जीवन का तथ्य, सत्य, कथ्य सब को एक वृहत् संघ में विलीन होते देखने की। सादड़ी एक कुछ प्रतिबिम्बित होता है। जीवन की सच्ची कसौटी यही भव्यतीर्थ बनने जा रहा था। अनेक विद्वान् सन्त अपनी- है। श्रद्धय उपाध्यायश्री जी महाराज का मृदु-मधुर व्यवअपनी शिष्यमंडली के साथ सादड़ी के प्रांगण में होने वाले हार उनके व्यक्तित्व को अभिव्यक्त कर रहा था। जितने इस संघ-ऐक्य-महायज्ञ में अपनी-अपनी आहुतियाँ देने जा रहे दिन सादड़ी में रहे, प्राय: प्रतिदिन आपके दर्शन होते थे, थे। श्रद्धेय उपाध्याय प्रवर श्रीपुष्कर मुनीजी महाराज भी यदा-कदा किसी बात पर विचार-विमर्श भी होता था, अपनी शिष्य-मंडली के साथ सादड़ी-तीर्थ में विराज रहे आपकी तत्वचिन्तनस्पर्शी वाणी में हमारे प्रति नितरता थे क्योंकि उन्होंने ही वहाँ पर सम्मेलन का भव्य आयोजन हुआ अपार स्नेह झलकता था। साथ में आपके प्रिय विद्वान किया था। स्व० पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री गणेशीलाल जी शिष्य पं० श्रीदेवेन्द्रमुनि जी एवं श्री गणेशमुनिजी भी महाराज के साथ हम सब भी सादड़ी पहुंचे। वहीं पर उस मधुर चिन्तन-गंगा में हमारे साथ-साथ गोते लगाते थे हमारा प्रथम साक्षात्कार हआ था। गौर, सौम्य एवं भव्य- और ऐसा प्रतीत होता था युगानुकूल चिन्तन का कलकल मूर्ति, सरलनिश्छल व्यक्तित्व, धीर-गम्भीर प्रकृति, अकृत्रिम निनाद करता हुआ निर्झर प्रवाहित हो रहा हो। हम सबने व्यवहार-बरताव और अपने ढंग का खरा-निखरा सन्त- उपाध्यायश्री जी के मधुर सान्निध्य में रहकर पर्याप्त स्नेह जीवन यह दिव्य-भव्य चित्र आज भी मेरी आँखों में तैर पाया, युगस्पर्शी चिन्तन प्राप्त किया। रहा है । मैंने प्रथम साक्षात्कार में ही पाया कि आप इतने उसके पश्चात् हम आपसे सोजत सम्मेलन में मिलें। विद्वान तपेतपाये प्रखर सन्त होते हुए भी कितने निरभि- उस समय तो हमें आपके प्रवचन श्रवण का भी लाभ मिला, मान हैं। साम्प्रदायिकता की घेराबन्दी बड़े-बड़े विद्वान् प्रवचन इतने ओजस्वी तथा बुलन्द स्वर में संघ-ऐक्य पर मनीषियों को संकुचित और वक्रहृदय बना देती है, परन्तु होते थे, कि सुनने वाला सहसा वहाँ से उठ नहीं सकता। उपाध्यायजी महाराज तब भी साम्प्रदायिकता के घेरे से बीच-बीच में विषय के अनुरूप रोचक दृष्टान्तों द्वारा बाहर थे। इसलिए प्रथम मिलन में ही आपके व्यक्तित्व ने आपका प्रवचन इतना सजीव हो उठता था कि किसी भी मुझे अत्यन्त प्रभावित कर दिया। विरोधी विचार की प्रतिध्वनि मुखरित नहीं हो सकती थी। जिन्दगी की इस मंजिल में मिलते तो कितने ही हैं, मैं सुनकर दंग रह गया कि संघ-ऐक्य के सम्बन्ध में आपके परन्तु वह मिलन अपने आप में बहुत ही महत्त्व रखता विचार कितने सुलझे हुए एवं उन्नत हैं। आपके विचारों है। हमसे आप मिले और दिल खोलकर मिले। ऐसा प्रतीत में युग की छाया स्पष्ट थी, किन्तु साथ ही तदनुकूल हो रहा था, जैसे गुरु अपने वर्षों से बिछुड़े हुये प्रिय शिष्य शास्त्रीय पुट भी था, जो प्राचीन और अर्वाचीन सभी से मिल रहा हो । यही तो जिन्दगी की एक खूबी है- विचारों को समन्वित कर देता था। यही कारण है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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