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________________ ५५८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड दिगम्बर सम्प्रदाय में तो ये अंग सूत्रादि लुप्त हो गये ऐसा माना जाता है, पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वे ही आगम-ग्रन्थ प्राप्त और मान्य हैं। जैन साहित्य का विकास भगवान महावीर के बाद कई जैनाचार्यों ने बहुत से सूत्र ग्रन्थ बनाये, पर उन सूत्रों में से २-४ को छोड़कर बाकी में रचयिता का नाम नहीं मिलता। उन रचयिता के नामवाले ग्रन्थों में सबसे पहला सूत्र है “दशवकालिक" जिसमें जैन मुनियों का आचार संक्षेप में वर्णित है। इस सूत्र के रचयिता शयंभवसूरी महावीर निर्वाण के ६८ वर्ष में स्वर्गस्थ पूर्व पट्टधर हुए हैं। इसके बाद आचार्य भद्रबाहु श्रु तकेवली ने बृहद्कल्प, व्यवहार और दशाश्र तस्कन्ध नामक ३ छेदसूत्रों की रचना की। १० आगमों की नियुक्तियांरूप प्राचीन आगमिक टीकाएँ भी भद्रबाहु रचित हैं । पर आधुनिक विद्वानों की राय में इनके कर्ता द्वितीय भद्रबाहु पीछे हुए हैं। इसके बाद श्यामाचार्य ने पन्नवणासूत्र बनाया। इस तरह समय-समय पर अन्य कई आचार्यों और विद्वानों ने ग्रन्थ बनाकर जैन साहित्य की अभिवृद्धि की। संस्कृत में जैन साहित्य __ भगवान महावीर ने तत्कालीन लोकभाषा अर्द्धमागधी में उपदेश दिया था और उसी परम्परा को जैनाचार्यों ने भी ५०० वर्षों तक बराबर निभाया। अतः उस समय तक का समस्त जैन साहित्य प्राकृत भाषा में ही रचित है। इसके बाद संस्कृत के बढ़ते हुए प्रचार से जैन विद्वान् भी प्रभावित हुए और उन्होंने प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत में भी रचना करना प्रारम्भ कर दिया। उपलब्ध जैन साहित्य में सबसे पहला संस्कृत ग्रन्थ आचार्य उमास्वाति रचित "तत्त्वार्थसूत्र" माना जाता है, जो विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी की रचना है। इसमें छोटे-छोटे सूत्रों के रूप में जैन सिद्धान्तों का बहुत खूबी से संकलन कर दिया गया है। यह १० अध्यायों में विभक्त है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदाय इसे समान रूप से मान्य करते हैं; और दोनों सम्प्रदाय वालों की इस पर टीकाएँ प्राप्त हैं। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार तो तत्त्वार्थसूत्र का भाष्य स्वयं उमास्वाति ने ही रचा है। सूत्रग्रन्थों की परम्परा का यह महत्त्वपूर्ण संस्कृत जैन ग्रन्थ है। ___ इसके बाद तो समन्तभद्र, सिद्धसेन, पूज्यपाद, अकलंक, हरिभद्र आदि श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों संप्रदायों के विद्वानों द्वारा दार्शनिक न्यायग्रन्थ और टीकाएँ आदि संस्कृत में बराबर रची जाती रहीं। और आगे चलकर काव्य, चरित्र और सभी विषयों के जैन ग्रन्थ संस्कृत में खूब लिखे गये। अपभ्रंश एवं लोक-भाषाओं में जैन साहित्य जनभाषा में निरन्तर परिवर्तन होता ही रहता है, अतः प्राकृत भाषा अपभ्रंश के रूप में परिणत हो गई। अपभ्रंश में भी जैनों ने ही सर्वाधिक साहित्य का निर्माण किया है। वैसे तो प्राचीन संस्कृत नाटकों में भी निम्न जाति के एवं साधारण पुरुषों और स्त्रियों की भाषा अपभ्रंश व्यवहरित हुई है पर स्वतन्त्र अपभ्रंश भाषा की रचनाएँ ८वींहवीं शताब्दी से मिलने लगी हैं और १७वीं शताब्दी तक छोटी-बड़ी सैकड़ों रचनाएँ जैन कवियों की रचित आज भी प्राप्त हैं । कवि स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल आदि अपभ्रंश के जैन महाकवि हैं। जैनेतर रचित अपभ्रंश साहित्य विशेष नहीं मिलता। क्योंकि उन्होंने प्रारम्भ से ही संस्कृत को प्रधानता दे रखी थी, अतः उनका सर्वाधिक साहित्य संस्कृत में है। अपभ्रश से उत्तर भारत की प्रान्तीय भाषाओं का निकास और विकास हुआ। १३वीं शताब्दी से राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी में साहित्य मिलने लगता है। यद्यपि १५वीं शताब्दी तक अपभ्रंश का प्रभाव उन रचनाओं में पाया जाता है। उस समय तक राजस्थान और गुजरात में तो एक ही भाषा बोली जाती थी जिसे राजस्थान वाले पुरानी राजस्थानी एवं गुजरात वाले जूनी गुजराती कहते हैं । अतः कई विद्वानों ने उसे 'मरु-गुर्जर' भाषा कहना अधिक उचित माना है। आगे चलकर राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी में प्रान्तीय-भेद अधिक स्पष्ट होते गये। इन तीनों भाषाओं में भी जैन विद्वानों ने प्रचुर रचनाएँ बनायी हैं। वैसे कुछ रचनाएँ सिन्धी, मराठी, बंगला आदि अन्य प्रान्तीय भाषाओं में भी जैनों की रचित प्राप्त है। हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती में तो लाखों श्लोक परिमित गद्य और पद्य की जैन रचनाएँ प्राप्त हैं, एवं प्राचीनतम रचनाएँ जैनों की ही प्राप्त हैं। कथाओं का भण्डार-जैन साहित्य लोकभाषा की तरह लोक-कथाओं और देशी संगीत को भी जैनों ने विशेषरूप से अपनाया। इसलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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