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________________ भारतीय साहित्य को जैन साहित्य की विशिष्ट देन * श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर भारतीय साहित्य को जैन साहित्य की विशिष्ट देन ५५७ जैनधर्म भारत का प्राचीनतम धर्म है। उसके प्रवर्तक और प्रचारक २४ तीर्थंकर इसी भारत भूमि में ही जनमे; साधना करके विशिष्ट ज्ञान प्राप्त किया और जनता को धर्मोपदेश देकर भारत में ही निर्वाण को प्राप्त हुए । जैन परम्परा के अनुसार भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे। उन्होंने ही युगलिक धर्म (पुत्र एवं पुत्री युगल का साथ ही जन्म एवं बड़े होने पर उनमें पति-पत्नी सम्बन्ध ) का निवारण करके असि (शास्त्र), मषि (लेखनी) कृषि तथा विद्याओं और कलाओं की शिक्षा देकर भारतीय संस्कृति को एक नया रूप दिया। वे महान् आविष्कर्ता थे। उन्होंने अपनी बड़ी पुत्री ब्राह्मी को जो लिपि सिखाई वह भारत की प्राचीनतम लिपि ब्राह्मी के नाम से प्रसिद्ध हुई और छोटी पुत्री सुन्दरी को अंक आदि सिखाये जिससे गणित का विकास हुआ। पुरुषों को ७२ तथा स्त्रियों की ६४ कलाएं या विद्याएँ भगवान ऋषभदेव की ही विशिष्ट देन हैं। भगवान ऋषभदेव के बड़े पुत्र भरत ६ खण्डों को विजय कर चक्रवर्ती सम्राट् बने और उन्हीं के नाम से इस देश का नाम 'भारत' प्रसिद्ध हुआ । *********** व्यावहारिक शिक्षा देने के बाद भगवान ऋषभदेव ने पिछली आयु में संन्यास ग्रहण किया और तपस्या तथा ध्यान आदि की साधना से आत्मिक ज्ञान प्राप्त किया। उस परिपूर्ण और विशिष्ट ज्ञान का नाम "केवलज्ञान" जैनधर्म में प्रसिद्ध है । इसके बाद उन्होंने आध्यात्मिक साधना का मार्ग प्रवर्तित किया; आत्मिक उन्नति और मोक्ष का मार्ग सबको बतलाया । इसलिए भगवान ऋषभदेव का जैन साहित्य में सर्वाधिक महत्त्व है । यद्यपि उनको हुए असंख्यात वर्ष हो गये, इसलिए उनकी वाणी या उपदेश तो हमें प्राप्त नहीं है, पर उनकी परम्परा में २३ तीर्थंकर और हुए, उन्होंने मी साधना द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया। सभी केवलियों का ज्ञान एक जैसा ही होता है। इसलिए ऋषदेव की ज्ञान की परम्परा अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर की वाणी और उपदेश के रूप में आज भी हमें प्राप्त है । समस्त जैन साहित्य का मूल आधार वही केवलज्ञानी तीर्थंकरों की वाणी ही है। Jain Education International प्राचीनतम जैन साहित्य भगवान महावीर के पहले के तीर्थंकरों के मुनियों का जो विवरण आगमों में प्राप्त है, उससे मालूम होता है कि पूर्वो का ज्ञान उस परम्परा में चालू था । आगे चलकर उनको १४ पूर्वी में विभाजित कर दिया । भगवान महावीर के समय और उसके कई शताब्दियों तक १४ पूर्वो का ज्ञान प्रचलित रहा, उसके पश्चात् क्रमशः उसमें क्षीणता आती गई, और करीब-करीब हजार वर्षों से १४ पूर्वो के ज्ञान की वह विशिष्ट परम्परा लुप्त सी हो गई । भगवान महावीर ने जो ३० वर्ष तक अनेक स्थानों में विचरते हुए धर्मोपदेश दिया उसे उनके प्रधान शिष्य गौतम आदि ११ गणधरों ने सूत्ररूप में निबद्ध कर दिया। वह उपदेश १२ अंगसूत्रों में विभक्त कर दिया गया जिसे " द्वादशांग - गणि-पिटक" कहा जाता है। इनमें से १२वाँ दृष्टिवाद अंग सूत्र जो बहुत बड़ा और विशिष्ट ज्ञान का स्रोत था, पर वह तो लुप्त हो चुका है । बाकी ११ अंग सूत्र करीब हजार वर्ष तक मौखिक रूप से प्रचलित रहे इसलिए उनका भी बहुत-सा अंश विस्मृत हो गया। वीरनिर्वाण संवत् ६८० में देवद्धगणी क्षमाश्रमण ने सौराष्ट्र की वल्लभी नगरी में उस समय तक जो आगम मौखिक रूप से प्राप्त थे, उनको लिपिबद्ध कर दिया। अतः प्राचीनतम जैन साहित्य के रूप में वे ११ अंग और उनके उपांग तथा उनके आधार से बने हुए जो भी आगम आज प्राप्त हैं, उन्हें प्राचीनतम जैन साहित्य माना जाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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