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________________ ५५६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड (४) समुच्छिन्नक्रियाअनिवृत्ति-जब सूक्ष्म क्रिया का भी निरोध हो जाता है उस अवस्था को समुच्छिन्नक्रिय कहते हैं । इसका निवर्तन नहीं होता, अतः यह अनिवृत्ति है। आचार्य पतंजलि ने शुक्लध्यान के प्रथम दो भेदों को संप्रज्ञात और अन्तिम दो भेदों को असंप्रज्ञात समाधि कहा है। शुक्लध्यान के चार लक्षण हैं-(१) अन्यथ-क्षोभ का अभाव, (२) असंमोह-सूक्ष्म पदार्थ विषय संबंधी मूढ़ता का अभाव । (३) विवेक-शरीर और आत्मा के भेद का परिज्ञान (४) व्युत्सर्ग-शरीर और उपाधि में अनासक्त माव। ___ शुक्लध्यान के चार आलंबन हैं-(१) क्षांति-क्षमा (२) मुक्ति-निर्लोभता (३) मार्दव-मृदुता, और (४) आर्जव-सरलता । ___ शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं-(१) अनन्तवृत्तिता अनुप्रेक्षा-संसार की परंपरा पर चिन्तन करना । (२) विपरिणाम अनुप्रेक्षा-वस्तुओं के परिणामों का चिन्तन । (३) अशुभ अनुप्रेक्षा-पदार्थों की अशुभता पर चिन्तन । (४) अपाय अनुप्रेक्षा-दोषों पर चिन्तन । वर्तमान युग में शुक्लध्यान का अभ्यास संभव नहीं है तथापि उसका विवेचन आवश्यक है जिससे कोई विशिष्ट साधक लाभान्वित हो सकता है । हमने उपर्युक्त पंक्तियों में शुक्लध्यान के चार आलंबन बताये हैं । प्रारंभ में मन का आलंबन समूचा संसार होता है किन्तु शनैः-शनैः अभ्यास होते-होते वह एक परमाणु पर स्थिर हो जाता है। केवलज्ञान प्राप्त होने पर मन का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है । आलंबन का जो संक्षेपीकरण है उसे आचार्यों ने उदाहरणों के द्वारा समझाया है। जिस प्रकार संपूर्ण शरीर में फैले हुए जहर को डंक के स्थान में एकत्रित करते हैं और फिर उस जहर को बाहर निकाल देते हैं वैसे ही विश्व के सभी विषयों में फैला हुआ मन एक परमाणु में निरुद्ध किया जाता है और उसे हटाकर आत्मस्थ किया जाता है। जिस प्रकार ईंधन समाप्त हो जाने पर अग्नि पहले क्षीण होती है, फिर वह अग्नि बुझ जाती है उसी प्रकार विषयों के समाप्त होने पर मन पहले क्षीण होता है, फिर शान्त हो जाता है। जिस प्रकार गरम लोहे के बर्तन में डाला हुआ जल क्रमशः न्यून होता जाता है, इसी प्रकार शुक्लध्यानी का मन अप्रमाद से क्षीण होता जाता है। आचार्य पतंजलि ने अपने योगसूत्र में लिखा है-योगी का चित्त सूक्ष्म जप में निविशमान होता है तब परमाणु स्थित हो जाता है । और स्थूल में निविशमान होता है तब परम महत्त्व उसका विषय बन जाता है । पतंजलि ने परमाणु पर स्थिर होने की बात तो कही है किन्तु स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने की चर्चा नहीं की। शुक्लध्यान के पहले दो चरणों में शुक्ललेश्या होती है । तीसरे चरण में परमशुक्ललेश्या होती है और चौथे चरण में लेश्या नहीं होती । शुक्लध्यान का अन्तिम फल मोक्ष है। ___ कुछ व्यक्तियों का यह मन्तव्य है कि वर्तमान युग में ध्यान नहीं हो सकता क्योंकि शरीर का संहनन जितना सुदृढ़ चाहिए उतना नहीं है । आचार्य उमास्वाति ने भी लिखा है कि ध्यान वही कर सकता है जिसका शारीरिक संहनन उत्तम है। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है इस दुःषमकाल में आत्मस्वभाव में स्थित ज्ञानी के धर्मध्यान हो सकता है, जो इस बात को स्वीकार नहीं करता वह अज्ञानी है । आचार्य देवसेन का भी यही मन्तव्य है। तत्त्वानुशासन में आचार्य रामसेन ने तो यहाँ तक लिखा है जो व्यक्ति वर्तमान में ध्यान होता नहीं मानते हैं वे अर्हत मत को नहीं जानते । यह सत्य है कि वर्तमान में शक्लध्यान के योग्य शारीरिक संहनन नहीं है किन्तु धर्मध्यान के योग्य आज भी संहनन है । शारीरिक संहनन जितना अधिक सुदृढ़ होगा उतना ही मन स्थिर होगा । शरीर की स्थिरता पर ही मन की स्थिरता संभव है। ध्यान की सिद्धि के लिए रामसेन ने गुरु का उपदेश, श्रद्धा, निरन्तर अभ्यास और स्थिरमन ये चार बातें आवश्यक मानी हैं । आचार्य पतंजलि ने अभ्यास की दृढ़ता के लिए दीर्घकाल, निरन्तर और सत्कार ये तीन बातें आवश्यक बतायी हैं । सोमदेवसूरि ने वैराग्य, ज्ञानसम्पदा, असंगतता, चित्त की स्थिरता, भूख-प्यास आदि को सहन करना-ध्यान के ये पांच हेतु बताये हैं। संक्षेप में ध्यान मोक्ष का प्रधान कारण है। ध्यान से कर्म रूपी बादल उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे दाक्षिणात्य पवन के चलने से । साबुन से मलिन वस्त्र स्वच्छ हो जाता है वैसे ही ध्यान से आत्मा निर्मल बन जाता है। जैन माधना में ध्यान का विशिष्ट महत्व रहा है। आज आवश्यकता है ध्यान की साधना को पुनरुज्जीवित करने की। ज्यों-ज्यों ध्यान की साधना विकसित होगी त्यों-त्यों राग-द्वेष-ईर्ष्या-मोह आदि की मात्राएँ कम होंगी और आत्मा में अधिक मात्रा में विशुद्धता प्राप्त होगी । और जीवन में अपूर्व आनन्द की उपलब्धि होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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