SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 586
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार : एक परिशीलन ५४३ . ++ ++ + ++ ++ ++ ++ ++ ++ + ++ ++ ++++ ++++++ ++ ++ ++ ++ ++++ + ++ ++++ + + + द्वितीय स्थूलमृषावादविरमणवत प्रथम व्रत की प्रतिज्ञा के पश्चात् श्रावक द्वितीय व्रत की प्रतिज्ञा ग्रहण करता है। उसमें वह स्थूलमृषावाद का यावज्जीवन के लिये त्याग करता है। स्थूल हिंसा-त्याग के सदृश ही वह दो करण व तीन योग से झूठ बोलने का त्याग करता है, अर्थात् न वह स्वयं स्थूलमृषा बोलता है और न किसी अन्य को बोलने के लिए प्रेरित करता है। तृतीय अवत्तादान विरमणव्रत तत्पश्चात् स्थूल अदत्तादानविरमणव्रत की प्रतिज्ञा करता है। यावज्जीवन के लिये वह स्वयं न करता है न कराता है मन, वचन व काया से । चतुर्थ स्वदार-संतोषव्रत तत्पश्चात् श्रावक स्वस्त्री-संतोषव्रत की प्रतिज्ञा करता है एवं संसार की अन्य समस्त स्त्रियों का परित्याग करता है । आनन्द श्रावक ने एक अपनी शिवानन्दा पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों के लिये ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया था। स्व-स्त्री में भी संतोष अर्थात् मर्यादा रक्खी जाती है जैसे पर्वतिथियों एवं दिन के समय ब्रह्मचर्य का पालन करता है। पञ्चम इच्छापरिमाण अपरिग्रह व्रत परिग्रह अनेक प्रकार के हैं किन्तु उसमें पाँच मुख्य हैं :-हिरण्य, सुवर्ण, द्विपद, चतुष्पद, क्षेत्र, वास्तु, धन धान्य एवं कुविण अर्थात् कुर्सी, पलंग, आदि अनेक गृहोपयोगी आवश्यक सामग्री इन सभी की मर्यादा की जाती है । षष्ठम दिशापरिमाणवत इस व्रत में छह दिशाओं में आने-जाने की मर्यादा की जाती है। सप्तम उपभोग-परिभोगपरिमाणुव्रत अन्य ग्यारह व्रतों की अपेक्षा इस व्रत में जीवन की सभी आवश्यक वस्तुओं की मर्यादा अत्यधिक विस्तार से बताई गई है। उपभोग का तात्पर्य है जो वस्तु एक बार ही उपयोग में आती है जैसे कि अन्न-जल आदि और परिभोग का तात्पर्य है एक ही वस्तु अनेक बार उपयोग में आ सके जैसे-मकान, वस्त्र, आभूषण स्त्री आदि । इस व्रत में विशेषतया छब्बीस प्रकार की वस्तुओं का वर्णन है वे निम्न हैं (१) उल्लणियाविहि-गीले शरीर को पोंछने के तोलिये आदि का परिमाण । (२) वन्तवणविहि-दन्त शुद्ध करने के साधनों की संख्या की मर्यादा करना जैसे-नीम, जेठीमूल, बोरजड़ी आदि। (३) फलविहि-आम, अनार, अंगूर, पपीता, मोसम्बी, केला, निम्बु, जामुन, खरबूजा, तरबूजा आदि फलों की संख्या की सीमा रखना। (४) अम्मंगणविहि-मालिश करने के लिए शतपाक, सहस्रपाक, सरसों का तेल, आंवले का तेल आदि विलेपनीय वस्तुओं की नियमित संख्या रखना। (५) उम्बट्टणाविहि-उद्वर्तन करना अर्थात् पीठी करने के द्रव्य गेहूँ, चने, जौ आदि का आटा केसर, चन्दन, बदाम क्रीम आदि वस्तुओं की अमुक संख्या रखना। (६) मज्जणविहि-स्नान करने के लिए जल का नाप-तौल रखना जैसे घड़े, कलश, आदि संख्या में इतने लीटर जल । (७) वत्थविहि-वस्त्रों की अनेक जातियां होती हैं जैसे-रेशम, सन, कपास आदि अथवा चीन, अमेरिका, यूरोप, जापान आदि अनेक देशों में उत्पन्न वस्त्रों की जाति की मर्यादा करना। (८) विलेवणविहि-स्नान के पश्चात् देह सजाने के लिए केसर चन्दन तेल आदि लगाने की वस्तुओं की संख्या निश्चित करना। () पुष्कविहि-फूलों की अनेक जातियाँ हैं जैसे-गुलाब, चमेली, चम्पा, मोगरा, सूर्यमुखी आदि फूलों की निश्चित जाति संख्या में पहनने के लिए मर्यादा करना। (१०) आभरणाविहि-शरीर को अलंकृत करने के लिए किरीट, कुण्डल, कंगन, करमुद्रिका आदि अनेक प्रकार के भूषण होते हैं उनकी संख्या में कमी करना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy