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________________ -0 O Jain Education International ५४२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड के कुल में जन्म लेने से कोई श्रावक नहीं कहला सकता। चाहे नाम से वह श्रावक कहा भी जाए किन्तु कर्म से वह श्रावक नहीं हो सकता । अतः श्रमणधर्मं की तरह श्रावकधर्म की भी विशिष्ट प्रतिज्ञाएँ की जाती हैं। श्रावकधर्म की प्रतिज्ञा ग्रहण करने पर उसको नवजीवन प्राप्त होता है। सूत्रों में श्रमणोपासक का नया जन्म माना जाता है। वह श्रमणोपासक जीव- अजीव का ज्ञाता होता है, पुण्य-पाप को समझकर अपने योग्य कर्म को करता है। उसका जीवन समाज की दृष्टि में विश्वासपात्र होता है। यदि वह राजाओं के अन्तःपुर में भी प्रवेश करे तो उसके चरित्र के प्रति सभी का आदर व विश्वास होता है । दानपात्र के लिए उसका गृह द्वार सदा अनावृत रहता है। श्रमण निर्ग्रन्थों को वह सदैव असन-पान खादिम, स्वादिम आहार व वस्त्र पात्र, निवासार्थं मकान, कम्बल, पादपीठ, औषधी आदि चौदह प्रकार का दान करके उनकी उपासना करता रहता है । अतः उसका श्रमणोपासक नाम एक सार्थक नाम है । श्रमणोपासकों के जीवन की विशिष्ट से विशिष्टतम चर्या का विवेचन उपासकदसांगसूत्र में सविस्तार दिया गया है। उस समय में वाणिज्यग्राम नगर के ईशान कोण में द्य तिपलाश नाम का उपवन था । वहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी का पदार्पण हुआ। उनके प्रवचन को सुनकर आनन्द नामक गाथापति ने गृहस्थधर्म धारण करने की इच्छा प्रकट की और भगवान महावीर के सान्निध्य में उसने द्वादश प्रकार के गृहस्थधर्म की निम्न प्रतिज्ञाएँ कीं । प्रथम अहिंसा व्रत की प्रतिज्ञा प्रथम अहिंसाव्रत में श्रावक स्थूलप्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता है । यह प्रत्याख्यान यावज्जीवन के लिये दो करण तीन योग से किया जाता है ।" अर्थात् निरापराध त्रसजीव की हिंसा वह मन, वचन व काया इन तीन योगों से न करता है न कराता है । सूत्रकार ने प्रथम अहिंसा व्रत का नाम 'स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रत" बतलाया है। इसका एक विशेष तात्पर्य है क्योंकि जीव तो त्रिकाल शाश्वत अजर अमर ध्रुव तत्त्व है उसका कभी अतिपात अर्थात् मृत्यु नहीं हो सकती अतः हिंसा करने वाला व्यक्ति जीवातिपात नहीं कर सकता किन्तु जीव के साथ जो शरीर इन्द्रियाँ आदि दस प्राण हैं, उन्हीं को अलग करता है । 'स्थूल' का तात्पर्य यहाँ पर 'निरपराध त्रसजीव' की हिंसा से है । क्योंकि जीव दो प्रकार के हैं—स एवं स्थावर । इनमें से श्रावक स्थावर अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, एवं वनस्पति इन एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का त्याग नहीं कर सकता। क्योंकि वह भिक्षा के द्वारा तो उदर-पोषण नहीं करता है अतः अन्नोत्पादन के लिये वह खेती करता है, उपवन लगाता है, कूप खुदवाता है, महल भवन बनाता है, भोजन बनाता है विवाह में प्रीतिभोज आदि कार्य करता है । इनमें एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा अवश्यम्भावी है अतः वह त्रसजीव अर्थात् द्वीन्द्रिय, पीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियद्रिय जीवों की हिंसा का त्याग करता है।" सर्वविरति और देशविरति की अहिंसा में अन्तर जैन श्रमण सर्वविरति साधक होता है उसकी अहिंसा परिपूर्ण होती है। वह त्रस एवं स्थावर - दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा का त्याग करता है | श्रावक त्रसजीव की हिंसा का ही त्याग करता है अतः बीस विस्वा की अहिंसा में दस विस्वा की अहिंसा कम हो गई । त्रस की अहिंसा में भी दो भेद हैं—आरम्भजा और संकल्पी | श्रावक संकल्पी हिंसा का त्याग कर सकता है किन्तु खेत खोदते, मकान बनाते इत्यादि आरम्भ करते समय अनजान में त्रस की हिंसा हो सकती है अतः वह आरम्भजा हिंसा का भी त्याग नहीं कर सकता। स्थावर का आरम्भ करते समय त्रस की हिंसा अवश्यम्भावी है | अतः दस में पांच विस्वा और कम हुए । आरम्भजा हिंसा के भी दो भेद हैं-सापराधी और निरपराधी । श्रावक केवल निरपराधी त्रसजीव की दया पालता है क्योंकि वह चोर को, व्यभिचारी को, हत्यारे को यथोचित दण्ड दे सकता है । यदि वह राजा हो या राजा का सैनिक हो तो अपने प्रतिपक्षी अन्यायी अपराधी राजा व उसकी सेना के साथ युद्ध भी करता है । भगवतीसूत्र में भगवान महावीर के शिष्य श्रमणोपासक महाराजा चेटक एवं उनके सैनिक वरुण नागनटुवा ने युद्ध किया था । अतः ५ विस्वा अहिंसा में ढाई विस्वा अहिंसा और कम हो गई । निरपराधी की हिंसा के भी दो भेद हैं- सापेक्ष और निरपेक्ष अर्थात् सकारण और अकारण, सप्रयोजन एवं निष्प्रयोजन । श्रमण दोनों तरह की अहिंसा का पालन करता है किन्तु श्रावक निष्प्रयोजन अहिंसा का पालन कर सकता है, सप्रयोजन अहिंसा का नहीं । जैसे हाथी को चलाते समय अंकुश लगाते हैं घोड़े को चाबुक, बैल को दण्ड प्रहार करते हैं अपने एवं अपने पारिवारिक जन एवं गाय बैल आदि पशु के शरीर में कृमि उत्पन्न होते हैं तो उनको औषधि प्रयोग से दूर करते हैं इससे ढाई बिस्वा अहिंसा में भी उसके सवा विस्वा अहिंसा शेष रहती है किन्तु जब कभी धावक सामायिकवत या प्रतिपूर्ण पौषध आदि विशेष प्रतिज्ञा ग्रहण करता है तो उस समय कुछ समय के लिये वह श्रमणवत परिपूर्ण अहिंसा का भी पालन कर सकता है इसीलिये उसकी अहिंसा भी देशविरति की अहिंसा है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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