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________________ श्रमणधर्म : एक विश्लेषण ५३५ ग्रहण करने का भी उल्लेख है-ऊन के, कपास के और सन के। वस्त्र की मर्यादा में श्रमण के लिए बहत्तर हाथ और श्रमणी के लिए छियानवे हाथ से अधिक वस्त्र नहीं रखने का विधान है । श्रमणोपासक श्रमण को चौदह प्रकार का निर्दोष दान प्रदान करता है। वे इस प्रकार हैं-(१) असन, (२) पान, (३) खादिम, (४) स्वादिम, (५) वस्त्र; (६) प्रतिग्रह (काष्ट पात्रादि), (७) कंबल, (८) पादपौंछन, (९) पीठ-बैठने का बाजोट, (१०) फलक-सोने का पाट, (११) शय्या मकान, (१२) संथारा--- तृण, घास आदि सोने के लिए, (१३) रजोहरण-ऊन का गुच्छक जीवरक्षा हेतु: (१४) औषधभेषज आदि । __ जैन-श्रमण की भिक्षा भी एक प्रकार की तपस्या है । भिक्षा को मधुकरी या गोचरी भी कहते हैं। वह जिस गृहस्थ से भिक्षा प्राप्त करे उसे किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिए । श्रमण अपने लिए भोजन नहीं बनाता और न अपने लिए बनाये हुए भोजन को ग्रहण ही करता है। भिक्षा के लिए एक पृथक् समिति का ही विधान किया गया है, जिसका नाम ऐषणासमिति है । श्रमण को सोलह उद्गमन के तथा सोलह उत्पाद के एवं दस ऐषणा के इस प्रकार बयालीस दोष टालकर आहार-पानी ग्रहण करना चाहिए और संतालीस दोष टालकर आहार का उपभोग करना चाहिए । श्रमण छः कारणों से आहार करते हैं क्षुधा-वेदना सहन न होने पर, वैयावृत्ति हेतु, ईर्याशोधनार्थ, संयमपालनार्थ, प्राणरक्षणार्थ और धर्मचिन्तनार्थ । इसी प्रकार छ: कारण उपस्थित होने पर वह आहार का परित्याग करता है-रोग की अभिवृद्धि होने पर, संयम त्याग का उपसर्ग उपस्थित होने पर, ब्रह्मचर्य की रक्षा हेतु, प्राणियों की रक्षा निमित्त तप के लिए तथा शरीरत्याग के अवसर पर। इस तरह आहार का ग्रहण और आहार का परित्याग संयमसाधना के लिए लिया जाता है या छोड़ा जाता है । श्रमण-जीवन का उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है। उसके लिए मुख्य दो साधन हैं-स्वाध्याय और ध्यान । श्रमण के दैनन्दिन जीवन में स्वाध्याय और ध्यान का अत्यधिक महत्त्व है । श्रमण प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में ध्यान, तृतीय प्रहर में भिक्षा-चर्या और चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय करता है। इसी तरह रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में ध्यान, तृतीय प्रहर में निद्रा और चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय करने का विधान है। दिन में एक प्रहर भिक्षाहेतु और रात्रि में एक प्रहर निद्राहेतु बताया है। वह भी संयम, स्वाध्याय व ध्यान को अभिवृद्धि हेतु है। बिना आहार और विश्रांति के निर्विघ्नतापूर्वक साधना नहीं हो सकती। स्वाध्याय और ध्यान करते समय रुग्ण, तपस्वी, वृद्ध, आदि श्रमणों की सेवा का प्रसंग उपस्थित हो तो वह सर्वप्रथम उनकी सेवा-शुश्रूषा करे । वैयावृत्ति भी श्रमण की साधना का एक प्रमुख अंग है। आगम साहित्य में श्रमण के पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना, कषायकुशील निर्ग्रन्थ और स्नातक-ये छह प्रकार बताये गये हैं । पुलाक खेत में अवस्थित शाली के सदृश्य जिसमें शुद्धि कम और अशुद्धि की मात्रा अधिक होती है ; बकुश खेत में कटी हुई शाली के समान शुद्धि और अशुद्धि समान होती है ; प्रतिसेवना खलिहान में उफनती शालीवत् शुद्धि अधिक और अशुद्धि कम ; कषायकुशील छिलकेयुक्त शाली के समान; निम्रन्थ छिलकेरहित चावल की तरह और स्नातक शुद्ध चावल के जैसे । इनमें पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना इन तीन में सामायिक और छेदोपस्थापनीय ये दो चारित्र होते हैं। कषायकुशील में सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्ध और सूक्ष्म सम्पराय, ये चार चारित्र होते हैं। निर्ग्रन्थ एवं स्नातक में एक यथाख्यात चारित्र होता है । पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना में छठा और सातवा गुणस्थान होता है, कषायकुशील में छठे से लेकर ग्यारहवाँ गुणस्थान हो सकता है। निम्रन्थ में बारहवाँ गुणस्थान होता है और स्नातक में तेरहवाँ और चौदहवाँ गुणस्थान होता है। - श्रमण-जीवन में अनेक प्रकार के परीषह उपस्थित होते हैं । आगम साहित्य में मुख्य परीषहों की परिगणना की है । उनमें क्षुधा, तृषा, शीत, ताप आदि बाईस हैं। श्रमण चाहे अनुकूल परीषह हो चाहे प्रतिकूल परीषह हो-उन परीषहों को हंसते और मुस्कराते हुए सहन करता है किन्तु कभी भी परीषहों से विचलित नहीं होता। एतदर्थ ही शास्त्रकारों ने कहा है श्रमण जीवन में इतना सुख प्राप्त होता है जितना स्वर्ग में भी उपलब्ध नहीं है । श्रमण स्वर्गीय सुखों का भी अतिक्रमण कर जाता है। क्योंकि स्वर्गीय सुख भौतिक पदार्थों पर अवलंबित है जबकि श्रमण-जीवन का जो सुख है वह आध्यात्मिक है, उसमें किसी की भी अपेक्षा नहीं होती। सारांश यह है कि श्रमण संस्कृति में श्रमणधर्म का जो निरूपण किया गया है वह इतना महत्त्वपूर्ण है कि आज भी यदि साधक उन सद्गुणों को अपनाये तो उसका जीवन चमक सकता है। उसके जीवन में अभिनव आलोक का संचार हो सकता है । जैन आगम साहित्य में श्रमणाचार का बहुत ही विस्तार से विश्लेषण किया गया है। किन्तु विस्तारभय से हमने संक्षेप में ही उस पर चिन्तन किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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