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________________ ५३४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड +++++ +++++++++++HHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHH चुका है। वर्तमान अवसर्पिणी काल में श्रमणधर्म का प्रारम्भ भगवान श्री ऋषभदेव ने किया और अपने पुत्र ऋषभ को श्रमण के वेष में केवलज्ञान प्राप्त हुए देखकर माता मरुदेवा को केवलज्ञान केवल-दर्शन की उपलब्धि हुई और वह मोक्ष में पधार गयी। भगवान ऋषभदेव के पुत्र और पुत्रियाँ भी श्रमणधर्म को स्वीकार कर. मोक्ष पधारे। भगवान ऋषभदेव के पश्चात् अन्य तेईस तीर्थकर हुए। उन्होंने भी श्रमण संस्कृति के दीप में समय-समय पर तेल प्रदान कर उसे अधिक प्रदीप्त किया और ज्योतिर्धर आचार्यों व प्रभावक श्रमण मुनियों ने इस संस्कृति की गौरव-गरिमा को बढ़ाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जैन संस्कृति के श्रमण का उद्देश्य है विभाव से हटकर स्वभाव में रमण करना, पर-दर्शन नहीं, आत्मदर्शन करना । सूत्रकृतांगसूत्र में बताया है कि एकमात्र आत्मा के लिए प्रव्रज्या ग्रहण करे । संसार में विराट दुःख है । जब तक आत्मा संसार के किनारे नहीं पहुंचता वहाँ तक दुःख से मुक्त नहीं हो सकता । एतदर्थ ही उत्तराध्ययनसूत्र में श्रमण जीवन को नौका के समान कहा है । जो नौका छिद्रसहित होती है वह समुद्रतट पर नहीं पहुंच पाती। जो नौका छिद्र रहित है वही सागर के पार होती है। श्रमण संयम के द्वारा सभी पाप-छिद्रों को रोक देता है और भव-सागर को पार कर जाता है। श्रमण की पहचान के लिए वेष आवश्यक माना गया है। श्रमण के लिए आगम साहित्य में मुखवस्त्रिका, रजोहरण, पात्र आदि उपकरण रखने का विधान है। जब श्रमण धर्म स्वीकार किया जाता है उस समय वह केश-लुंचन भी करता है । स्थानांग में श्रमण के लिए दस प्रकार का मुण्डन बताया है । श्रोत्र न्द्रिय, चक्षुइद्रिन्य, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय के विषयों को जीतना, क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों पर विजय प्राप्त करना-ये नौ प्रकार के आंतरिक मुण्डन हैं और दसवां सिर के बालों का मुण्डन है। श्रमण के मुख्य दस धर्म हैं-(१) क्षमा, (२) मुक्ति, (निर्लोभवृत्ति), (३) आर्जव (सरलता), (४) मार्दव, (५) लाघव (मोहरहित विनय), (६) सत्य, (७) संयम, (८) तप, (६) त्याग और (१०) ब्रह्मचर्य । केवल वेष परिवर्तन करने से श्रमण नहीं बनता । श्रमण बनने के लिए गुणों का होना आवश्यक है । समवायांग सूत्र में श्रमण के सत्ताईस गुणों का वर्णन है । वह इस प्रकार है "प्राणातिपातविरमण" ऐसे ही सर्वथा प्रकार से मृषावाद का त्याग, अदत्तादानत्याग, मैथुनत्याग, परिग्रहत्याग, श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह आदि से ५वीं स्पर्शनेन्द्रियनिग्रह, क्रोधविवेक, मानविवेक, मायाविवेक, लोभविवेक, भावसत्य, करणसत्य, योगसत्य, क्षमा, वैराग्य, मनसमाधारणता, वचनसमाधारणता, कायसमाधारणता, ज्ञान-संपन्नता, दर्शन. संपन्नता, चरित्र-संपन्नता, वेदनासहन एवं मृत्युसहिष्णुता। दिगम्बर परम्परा में श्रमण के अट्ठाईस मूल गुण माने हैं-पांच महाव्रत, पाँच इन्द्रियों का निग्रह, पाँच समिति छः आवश्यक, स्नानत्याग, शयन भूमि का शोधन, वस्त्र-त्याग, केश लुचन, एक समय भोजन, दन्तधावनत्याग और खड़े-खड़े भोजन । जैन-श्रमण के लिए सतरह प्रकार के संयम का पालन करना आवश्यक है। वह सतरह प्रकार के संयम यह हैं-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, अजीवकाय, प्रेक्षा-सोते, बैठते समय वस्त्र आदि उपकरणों को सम्यक् प्रकार से देखना, उपेक्षा–सांसारिक कार्यों के प्रति उपेक्षा, अपहृत्य-श्रमणधर्म का अध्ययन करना, शरीरउपाधि, मल-मूत्रादि परिष्ठापन करते हुए जीवरक्षा करना, प्रमार्जनावस्त्र, पात्र, मकान शरीर का उपयोग करते समय प्रमार्जनी गुच्छ विशेष से प्रमार्जन करना, मन को कषायरहित रखना, वचन असत्य, मषा व सिद्धान्तविरुद्ध न बोलना, काय-सोने-बैठने आदि शारीरिक क्रियाओं को करते समय जीवरक्षा का ध्यान रखना, इस प्रकार साधक असंयम से निवृत्त होकर संयम में प्रवृत्त होता है। श्रमणधर्म स्वीकार करने वाले साधक की कुछ बाह्य विशेषताएँ भी आचार्यों ने प्रतिपादित की हैं, वे ये है(१) आर्यदेशोत्पन्न, इसमें यह अपवाद है जो व्यक्ति अनायंदेश में उत्पन्न हुआ है किन्तु गुणों से युक्त है तो वह दीक्षा ग्रहण कर सकता है । (२) शुद्ध जाति कुलान्वित (३) क्षीणप्राय अशुभकर्म (४) विशुद्ध बुद्धि (५) विज्ञात संसार (६) विरक्त (७) मन्द कषायभाक् (८) अल्य हास्यादि अकौतूहली (९) कृतज्ञ (१०) विनीत (११) राजसम्मत (१२) अद्रोही (१३) सम्पूर्ण अंग सुन्दर हों (१४) श्रद्धावान् (१५) स्थिरचित्त (१६) समुप-सम्पन्न-पूर्णरूप से जीवन को संयम से व्यतीत करने वाला हो। इन बाह्य सद्गुणों से युक्त व्यक्ति ही श्रमणधर्म का सम्यक् प्रकार से पालन कर सकता है। स्थानांगसूत्र में श्रमणों के लिए तीन प्रकार के पात्र लेने का विधान है-(१) तुम्बे का पात्र, (२) काष्ट का पात्र और (३) मिट्टी का पात्र । श्रमण तीन कारणों से वस्त्र धारण करते हैं--(१) लज्जा के निवारण हेतु, (२) जनता की घृणा को दूर करने के लिए (३) शीत, ताप आदि परीषह असह्य होने पर । स्थानांगसूत्र में तीन प्रकार के वस्त्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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