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________________ 0 อ ० Jain Education International ५१२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ***** ******* से तथ्य की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अबोधि से बोधि की ओर, अमार्ग से मार्ग की ओर हो जाती है। उसका संकल्प उन्मुखी और लक्ष्मी हो जाता है। सम्यग्दर्शन की उपलब्धि दर्शनमोह के परमाणुओं के विलय होने से होती है। दर्शनमोह के परमाणुओं का विलय ही इस दृष्टि की प्राप्ति का हेतु है । वह विलय निसर्गजन्य और आधिगमिक ( ज्ञान - जन्य) दोनों प्रकार से होता है। नैसगिक सम्यग्दर्शन बाहरी किसी भी प्रकार के कारण के बिना अन्तरंग में दर्शनमोहनीय के उपशमादि से होने वाले सम्यक्त्व को कहते हैं। आधिगमिक सम्यग्दर्शन अन्तरंग में दर्शनमोह के उपशमादि होने पर बाहरी अध्ययन, पठन, श्रवण तथा उपदेश से जो सत्य के प्रति आकर्षण पैदा होता है, वह है। दोनों में दर्शनमोह का विलय मुख्य रूप से रहा हुआ है । यह भेद केवल बाहरी प्रक्रिया से है । सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के तीन कारण हैं १. दर्शन-मोह के परमाणुओं का पूर्ण रूप से उपशमन होना। २. दर्शन-मोह के परमाणुओं का अपूर्ण विलय होना । २. दर्शन-मोह के परमाणुओं का पूर्ण विलय होना । इन तीनों कारणों में से प्रथम कारण से उत्पन्न होने वाला सम्यग्दर्शन औपशमिक है। दूसरे कारण से उत्पन्न होने वाला क्षायोपशमिक है और तीसरे कारण से उत्पन्न होने वाला क्षायिक सम्यग्दर्शन है । औपशमिक सम्यग्दर्शन अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाला होता है। जिस प्रकार दबा हुआ रोग पुनः उभर आता है, इसी प्रकार अन्तर्मुहूर्त के लिए निरुद्धोदय किये हुए दर्शन-मोह के परमाणु काल मर्यादा समाप्त होते ही पुनः सक्रिय हो जाते हैं। किंचित् समय के लिए जो सम्यग्दर्शनी बना, वह पुनः मिथ्यादर्शनी बन जाता है। बीमारी के कीटाणुओं को निर्मूल नष्ट करने वाला सदा के लिए पूर्ण स्वस्थ बन जाता है। उन कीटाणुओं का शोधन करने वाला भी उनसे ग्रस्त नहीं होता किन्तु उन कीटाणुओं को दबाने वाला प्रतिक्षण खतरे में रहता है। औपशमिक सम्यग्दर्शनी भी तृतीय कोटि के समान है । औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की अवस्था में साधक कभी सम्यक् मार्ग से पराङ्मुख भी हो सकता है। इसकी तुलना बौद्ध स्थविरवादी श्रोतापन्न अवस्था से की जा सकती है। श्रोतापन्न साधक भी औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की तरह मार्ग से च्युत और पराङ्मुख हो सकता है । महायानी बौद्ध वाङ्मय में इस अवस्था की तुलना बोधि- प्रणिधिचित्ति से कर सकते हैं । जैसे सम्यग्दृष्टि आत्मा यथार्थ को जानता है और उस पर चलने की भव्य भावना भी रखता है, किन्तु उस पर चल नहीं सकता, वैसे ही बोधिप्रणिधिचित्ति में भी यथार्थ मार्ग और लोक-परित्राण की भावना होने के बावजूद भी वह मार्ग में प्रवृत्त नहीं होता । योगबिन्दु में आचार्य हरिभद्र ने सम्यग्दर्शन प्राप्त साधक की तुलना महायान के बोधिसत्व से भी की है ।" बोधिसत्व का सामान्य अर्थ है ज्ञान प्राप्ति का जिज्ञासु साधक ।" इस दृष्टि से उसकी तुलना सम्यग्दृष्टि के साथ हो सकती है। यदि बोधिसत्व का विशिष्ट अर्थ, लोक-कल्याण की मंगलमय भावना को दृष्टि में रखकर तुलना करें तो भी हो सकती हैं क्योंकि चतुर्थ गुणस्थान वाला साधक तीर्थंकर नामकर्म का भी उपार्जन कर सकता है । ४ चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव देव-संघ की सद्भक्ति करता है, शासन की उन्नति करता है, अतः यह शासन प्रभावक श्रावक कहा जाता है ।" चतुर्थ गुणस्थान में ७७ कर्मप्रकृतियों का बंध होता है। तृतीय गुणस्थान में जो ४६ कर्म प्रकृतियाँ नहीं यता है उनमें से मनुष्यआयु, देवायु और तीर्थकर नामकर्म इन कर्मप्रकृतियों को कम कर देना चाहिए अर्थात् ४३ प्रकृतियों का बन्ध नहीं करता है । शेष ७७ प्रकृतियों का बन्ध होता है ।" जिसकी दृष्टि सम्यक् होती है पर जिसमें व्रत की योग्यता प्राप्त नहीं होती उसे अविरति सम्यग्दृष्टि कहा गया है । दिगम्बर आचार्य भूतबलि व नेमिचन्द्र ने अविरतसम्यग्दृष्टि के स्थान पर असंयतसम्यग्दृष्टि शब्द का प्रयोग किया है।" चतुर्थ गुणस्थान में रहे हुए जीव का दृष्टिकोण समीचीन होता है किन्तु चारित्रमोह के उदय के कारण वह इन्द्रिय आदि विषयों से और हिंसा आदि पापों से विरत नहीं हो सकता ।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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