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________________ आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम : गुणस्थान दिगम्बराचार्य नेमिचन्द्र के अभिमतानुसार तृतीय गुणस्थानवर्ती जीव सकलसंयम या देश-संयम को ग्रहण नहीं करता और न इस गुणस्थान में आयुकर्म का बन्ध ही होता है । यदि इस गुणस्थानवाला जीव मरता है तो नियम से सम्यक्त्व या मिथ्यात्व रूप परिणामों को प्राप्त करके ही मरता है । किन्तु इस गुणस्थान में मरता नहीं है ।" अर्थात् तृतीय गुणस्थानवर्ती जीव ने तृतीय गुणस्थान को प्राप्त करने से पहले सम्यक्त्व या मिथ्यात्व रूप जिस जाति के परिणाम में आयुकर्म का बन्ध किया हो उन्हीं परिणामों के होने पर उसका मरण होता है। किन्तु मिश्र गुणस्थान में मरण नहीं होता और न इस गुणस्थान में मारणांतिक समुद्घात ही होता है ५११ । और जो आत्मा अधःपतनोन्मुख स्थान है। यहाँ यह रहस्य भी आत्मा चतुर्थ गुणस्थान को स्पर्श दूसरे गुणस्थान की अपेक्षा तीसरे गुणस्थान में एक विशेषता है कि दूसरे होती है किन्तु तृतीय गुणस्थान में अपक्रांति या उत्क्रांति दोनों होती हैं। कोई आत्मा इस अवस्था को प्राप्त होता है, अतः पूर्व की अपेक्षा यह उत्क्रान्ति स्थान कहलाता है होता है तो चतुर्थ गुणास्थान से वह इस अवस्था को प्राप्त होता है, अतः वह अपक्रांति समझना आवश्यक है कि जो आत्मा सर्वप्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान को छोड़ता है वह करता है और चतुर्थ गुणस्थान में यथार्थबोध को प्राप्त कर पुनः पतित होकर प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करता है, उस समय अपक्रांति काल में तृतीय गुणस्थान को भी स्पर्श कर सकता है और जिस आत्मा ने एक बार चतुर्थ गुणस्थान को स्पर्श लिया है और पुनः मिथ्यात्वी बन गया वह आत्मा प्रथम गुणस्थान से निकलकर चतुर्थ गुणस्थान को स्पर्श करने की स्थिति में तृतीय गुणस्थान को स्पर्श कर सकता है। क्योंकि संशय उसे हो सकता है, जिसने यथार्थता का कुछ अनुभव किया हो। यह एक अनिश्चय की अवस्था है जिसमें साधक यथार्थता के बोध के पश्चात् संशयावस्था को प्राप्त हो जाने से वह सत्य और असत्य के बीच झूलता रहता है। वह सत्य और असत्य में से किसी एक का चुनाव न कर अ-निर्णय की अवस्था में रहता है । आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से तृतीय गुणस्थान की स्थिति का चित्रण हम इस प्रकार कर सकते हैं । प्रस्तुत अवस्था पाशविक एवं वासनात्मक जीवन का प्रतिनिधित्व करने वाली अबोधात्मा तथा आदर्श एवं मूल्यात्मक जीवन का प्रतिनिधित्व करने वाला नैतिक मन (आदर्शात्मा) के मध्य संघर्ष की अवस्था है, जिसमें बोधात्मा निर्णय न ले पाता और निर्णय को कुछ समय के लिए स्थगित कर देता है । यदि बोधात्मा (Ego ) वासना का पक्ष लेता है तो व्यक्ति भोगमय जीवन को अपनाता है, अर्थात् मिथ्यादृष्टि हो जाता है। यदि चेतन मन आदर्श एवं नैतिक मूल्यों का पक्ष लेता है तो व्यक्ति आदर्श की ओर झुकता है अर्थात् सम्यग्दृष्टि हो जाता है । यह मिश्र गुणस्थान जीवन के संघर्ष की अवस्था का द्योतक है जिसमें मानव की पाशविक वृत्ति एवं आध्यात्मिक वृत्ति के बीच संघर्ष चलता है। यदि आध्यात्मिक वृत्ति की जीत हुई तो व्यक्ति आध्यात्मिक विकास करके यथार्थ दृष्टिकोण को प्राप्त कर लेता है। यदि पाशविक वृत्ति विजयी हुई तो व्यक्ति वासनाओं के प्रबल आवेगों के कारण यथार्थ दृष्टिकोण से वंचित होकर पतित होता है और प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में चला जाता है। नैतिक प्रगति की दृष्टि से देखा जाय तो यह तीसरा गुणस्थान भी अविकास की अवस्था ही है क्योंकि जब तक यथार्थबोध का सम्यक् विवेक जागृत न होता तो इस तीसरे गुणस्थान में शुभ-अशुभ के बारे में अनिश्चितता या संदेहशीलता की स्थिति होती है अत: इसमें नैतिक घुमाचरण की सम्भावना नहीं है। गीता में भी वीर अर्जुन के अन्तर्मानस में जब संशयात्मक स्थिति समुत्पन्न हुई तो श्रीकृष्ण ने उस स्थिति के निराकरण हेतु उसे उपदेश दिया कि यह संशयात्मक स्थिति उचित नहीं है । व्यक्ति नैतिक शुभाचरण नहीं कर पाता है । Jain Education International गुणस्थान में केवल अपक्रांति ही मिथ्यादर्शन को छोड़कर सीधा प्रस्तुत गुणस्थान में ७४ कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । (१) तीर्थंकर नामकर्म ( २ ) आहारक शरीर (३) आहारक अंगोपांग (४) नरक त्रिक (५) तिर्यञ्च त्रिक (६) चार जाति (७) स्थावर ( ८ ) सूक्ष्म ( 2 ) अपर्याप्त (१०) साधारण (११) समचतुरख संस्थान को छोड़कर पाँच संस्थान ( १२ ) वषमनाराच संहनन को छोड़कर पाँच (१३) आतप (१४) उद्योत (१५) स्त्रीवेद (१६) नपुंसकवेद (१७) मिध्यात्व-मोहनीय (१८) अनन्तानुबन्धी चतुष्क (१६) स्थान त्रिक (२०) दुभंग त्रिक (२१) मीच गोत्र (२२) अशुभ विहायोगति (२२) मनुष्य आयु (२४) देवायु इस प्रकार ४६ प्रकृतियों को छोड़कर एक सौ बीस प्रकृतियों में से ७४ प्रकृति को बाँधता है। * ४. अविरति सम्यि सम्यक्दर्शन प्राप्त होने पर आत्मा में विवेक की ज्योति जागृत हो जाती है। वह आत्मा और अनात्मा के अन्तर को समझने लगता है। अभी तक पर रूप में जो स्वरूप की भ्रान्ति थी वह दूर हो जाती है। उसकी गति अतथ्य For Private & Personal Use Only O www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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