SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 540
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वप्नशास्त्र : एक मीमांसा ४९७ . ०० है । क्योंकि ऐसे महान स्वप्न सभी को नहीं आते। जब अन्तःकरण परम पवित्र, शांत और निरुद्ध ग होता है, चित्तवृत्तियाँ स्व-लीन होती हैं उसी दशा में ऐसे उत्तम स्वप्न दिखाई देते हैं। कभी-कभी इनसे मिलते-जुलते एक-दो स्वप्न सामान्य शान्त मनःस्थिति वालों को भी दिखाई देते हैं और उनका फल भी प्रायः उस स्थिति के अनुकूल दुःखों की श्रृंखला से मुक्ति पाना, किसी विशिष्ट वस्तु या सन्मान की प्राप्ति होना, उच्चपद की प्राप्ति होना आदि लगाये जाते हैं। उपसंहार इस प्रकार स्वप्न-शास्त्र के विविध स्वरूप व प्रकारों पर विचार करने से निम्न बातें निष्कर्ष रूप में हमारे सामने आती हैं : १. विगत एवं वर्तमान जीवन से सम्बन्धित स्वप्न अधिकतर मनुष्य के अचेतन मन से सम्बन्धित होते हैं । सुप्त इच्छा, दमित वासना या लुप्तप्राय संस्कार उनके प्रेरक होते हैं। २. देखी, सुनी, अनुभव की हुई बातें, दृश्य आदि कभी विपरीत रूप में, कभी नाटक शैली में और कभी संक्षिप्त रूप में स्वप्न में आती हैं। ३. स्वप्न मनुष्य की गुप्त इच्छा या दमित वासना तथा मानसिक तनाव को उद्घाटित कर एक प्रकार की राहत पहुंचाता है। मानस विज्ञान, स्वप्न के आधार पर रोगी की चिकित्सा करने में सफल हो सकता है। ४. जिन स्वप्नों का वर्तमान या विगत जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं, ऐसे भविष्यसूचक स्वप्न बहुत ही कम आते हैं । अधिकतर भविष्यसूचक स्वप्नों का संस्कार वर्तमान जीवन में ही छुपा रहता है। ५. महापुरुषों की माताओं के स्वप्न उनके वर्तमान जीवन की उच्च आकांक्षा को व्यक्त करते हैं। किसी दिव्य तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति की कामना उनके अन्तःकरण में गुप्त रूप में छुपी रहती है, और गर्भधारण के समय उसी इच्छा के अनुरूप पुत्र जब गर्भ में अवतीर्ण होता है तो विशिष्ट स्वप्न उसकी इच्छा की पूर्ति की सूचना देते हैं। ६. भरत चक्रवर्ती, चन्द्रगुप्त राजा आदि के स्वप्न भविष्य के धर्म, समाज एवं राष्ट्र के सम्बन्ध में उनके मन में रही हुई आशंका, दुष्कल्पना और भय के सूचक भी हैं तथा उनकी चिन्तापरक चिन्तन धारा के भी। ७. भगवान महावीर के दस स्वप्न-उनके पवित्र एवं निर्मलतम अन्तःकरण में लहराती भावी की प्रतिच्छवि मात्र है। उनकी आन्तरिक चेतना इतनी विशुद्ध हो गई थी कि निकट भविष्य में होने वाला कैवल्य-लाभ तथा संघ स्थापना का महनीय कार्य स्वप्न-सागर में तैरने लग गया। ८. यह कोई आवश्यक नहीं कि प्रत्येक स्वप्न सार्थक ही हो। अधिकतर स्वप्न, स्वप्नमात्र ही होते हैं अर्थात् निरर्थक ! किन्तु सूक्ष्म विचार करने पर उनके द्वारा मनुष्य की आन्तरिक वृत्तियों की अस्फुट झलक मिल सकती है और उसके आधार पर की गई मनोचिकित्सा भी सफल हो सकती है। ६. रात्रि के अन्तिम प्रहर में, स्वस्थ तथा प्रसन्नमनःस्थिति में देखे गये स्वप्न अपना एक अर्थ रखते हैं और वातावरण तथा परिस्थिति के अनुकूल उनका फल विचार करने पर लाभ प्राप्ति तथा हानि से बचाव भी हो सकता है। १०. शुभ स्वप्न देखने के बाद पुनः नींद नहीं लेना चाहिए। किन्तु अन्तिमरात्रि का स्वप्न शुभचिन्तन एवं पवित्र ध्यान आदि में व्यतीत करना चाहिए । ११. अशुभ स्वप्न के निवारण हेतु सोते समय मन को शान्त व प्रसन्न रखना, इष्टदेव का स्मरण करना तथा अच्छे उत्तम विचारों से मन को भरकर शयन करना चाहिए। १२. अशुम या भयावह स्वप्न देखकर डरना नहीं चाहिए किन्तु इष्टस्मरण, धर्मध्यान, दान-तपस्या आदि के द्वारा उसके अशुभफल की निवृत्ति का प्रयत्न करना चाहिए । १३. स्वप्न आखिर स्वप्न है, उसे यथार्थ मानने की ऐसी भूल नहीं करना चाहिए कि जीवन में अव्यवस्था या संकट उत्पन्न हो जाये। १४. स्वप्न पर अधिक विश्वास खतरनाक होता है। १५. मनुष्य को स्वप्नद्रष्टा नहीं यथार्थद्रष्टा होकर आत्म-उत्थान के लिए सतत जागरूक रहना चाहिए। ७. भगवान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy