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________________ 0 Jain Education International १८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ का ही परिणाम है कि आपने अपने शिष्यों को धुरन्धर विद्वान्, लेखक एवं वक्ता बनाया है। उनके जीवन का सुन्दर निर्माण किया है। जोधपुर वैसे अनेक सम्प्रदायों का दुर्ग होने से कट्ट रता में अग्रणी रहा है। यहाँ साम्प्रदायिकता से मुक्त मानस के लोग जैनधर्मावलम्बियों में इने-गिने ही मिल सकते हैं । एक बार बातचीत के सिलसिले में कुछ कट्टर लोगों ने हमारी तीखी आलोचना आपश्री के समक्ष की, जो आपको वास्तविकता से शून्य, तथ्यहीन लगी । आप एवं आपके शिष्ययुगल, जो हमारी प्रकृति से परिचित थे, हमारे व्यवहार को भली-भाँति देख-परख चुके थे, हमारे साधुजीवन का साधुता की तुला पर कुछ प्रसंगों में तौल चुके थे, अतः आपने साम्प्रदायिकता का रंगीन चश्मा लगाए हुए कटु आलोचकों से कहा— " आप जैसा कहते और समझते हैं, वैसे ये मुनि नहीं हैं। यद्यपि साम्प्रदायिकता की लीक पर ये नहीं चलते हैं, परन्तु साधुता की सीमारेखा का उल्लंघन या साधुत्व के गुणों का अतिक्रमण ये नहीं करते हैं ।" आपश्री के समझाने पर उक्त आलोचकों के दिमाग में बात जंच गई। मुझे जब पता लगा तो मैंने कहा"ऐसे कटु आलोचकों को आपने जब करारा उत्तर दिया तो आपको भी उन्होंने वैसा ही समझ लिया होगा या आपसे नाराज होकर वन्दना व्यवहार आदि बन्द कर दिया होगा ?" उन्होंने सस्मित स्वर में कहा - " मुनिजी ! इन बातों की हम इतनी परवाह नहीं करते । यदि सत्य बात कहते भी कोई नाराज होता हो तो हो ! किन्तु मुझे विश्वास था कि युक्तिपूर्वक शान्ति से समझाने पर कट्टर लोग भी समझ जाएँगे ।" वैसा ही हुआ । सोजत सम्मेलन के दौरान आपश्री एवं आपके तेजस्वी शिष्ययुगल मेरी लेखनशक्ति से परिचित हो गया था, क्यों कि मैं और मुनि समदर्शीजी दोनों उस समय प्रातः और मध्याह्न में होने वाली मीटिंगों में जो भी कार्यवाही या चर्चा होती थी, उसका विवरण लिखते थे और दूसरे दिन तत्कालीन शान्तिरक्षक व्याख्यानवाचस्पति श्री मदनलाल जी महाराज को सुवाच्य अक्षरों में व्यवस्थित लिखकर बता देते थे । उसी लेखनकार्य से श्री राजस्थानकेसरी जी महाराज प्रभावित थे । अतः एक दिन जोधपुर में बातचीत के दौरान आपके विद्वान् शिष्यरत्न पं० श्री देवेन्द्र मुनिजी मुझ • से कहा- "मुनिजी ! आपको अगर समय हो तो गुरुदेव के कुछ व्याख्यानों का सम्पादन करना है । यहाँ के कुछ श्रद्धालु भक्त उसे प्रकाशित करना चाहते हैं।" मैंने आत्मीयभाव से कहा - " अवश्य, महाराज श्री ! मेरे पास इस समय अवकाश है। मेरी लेखन साधना भी होगी, और प्रवचनों का सम्पादन करने से ज्ञानसाधना भी होगी । 'एक पंथ दो काज' होंगे। आप अवश्य ही मुझे यह कार्य ने सौंप दीजिए।" पं० श्री देवेन्द्र मुनी जी ने आपश्री से पूछा तो " आप कुछ सकुचा रहे थे इतना परिश्रमपूर्ण कार्य मुझे देने में ।” किन्तु मैंने आपका संकोचभंग करते हुए कहा"महाराजश्री ! आप बिलकुल संकोच न कीजिए। मुझे यह अच्छा सेवा का लाभ प्राप्त होगा। मैं अवश्य ही इस कार्य को कर दूंगा और सेवा तो मैं आपकी कर ही नहीं पा रहा हूँ। वैसे मेरे रुग्ण गुरुभ्राता की सेवा में मुझे थोड़ा समय देना पड़ता है, फिर भी मेरे पास काफी समय बचता है । आप मुझे दे दीजिए।" आपने फिर भी सकुचाते हुए कहा- " यद्यपि देवेन्द्र इन प्रवचनों का सम्पादन कर देता, परन्तु इस समय यह स्वयं फिश्चुला रोग से पीड़ित है। इसलिए अत्यधिक परिश्रम करना इसके बस का नहीं रहा। आप इन प्रवचनों को ले जाइए और जितने सम्पा दन कर सकें कर दीजिए।” अस्तु, मैं उन प्रवचनों को अपने स्थान पर ले आया और उनका सम्पादन करना शुरू किया। कुछ ही प्रवचनों का सम्पादन मैं कर पाया होऊँगा कि अकस्मात् मेरे गुरुभ्राता श्री डूंगरसिंह जी महाराज का स्वास्थ्य एकदम गड़बड़ा गया। इस कारण लेखनकार्य ठप्प हो गया । उनके शरीर की डॉक्टरी जाँच के लिए डॉ० मेहता के परामर्श पर उन्हें बालनिकेतन से गाँधी हॉस्पिटल में ले आया गया संयोगवश उन दिनों आपश्री पं० श्री देवेन्द्र मुनिजी के इलाज के कारण एक स्पेशल वार्ड में रुके हुए थे । इस कारण आपके दर्शनों का बार-बार लाभ मिलता रहता था। मेरे गुरुभ्राता को भी स्वास्थ्यलाभ के लिए डा० मेहता ने जनरल वार्ड में एक पृथ स्थान दे दिया, जहाँ मैं भी एक ओर अपना आसन जमाकर बैठ गया। उस दिन मेरे गुरुभ्राताजी की भी तबियत कुछ ज्यादा ही खराब थी। अचानक ही रात्रि के लगभग ८ बजे गुरुभ्राता जी का हार्टफेल हो गया । रात्रिकालीन ड्यूटी वाले डॉक्टर आए, उन्होंने जांच की, पर गुरुभ्राताजी दिवंगत हो चुके थे । उनकी आत्मा दिव्यलोक को प्रस्थान कर चुकी थी । मेरे सामने एक बार तो अन्धेरा सा छा गया। मैं रह गया। सोचने लगा- T- अब क्या होगा, क्या गुरुभ्राताजी के यहाँ हॉस्पिटल पार्थिव शरीर की अन्त्येष्टि कौन में तो कोई परिचित जैन श्रावक भी नहीं ! मैं एक बार तो घबरा उठा। फिर मुझे स्मरण हो आया कि यहाँ स्पेशलवार्ड में श्रीपुष्करमुनिजी महाराज विराजमान हैं, उनको बुलाकर वे जैसा कहें, वैसा करू ँ ! उधर हॉस्पिटल के कर्मचारी भी कहने लगे - " अगर आप अपने आदमी के शव को नहीं ले जाते हैं तो यहाँ के नियमानुसार इसे हम कुछ ही देर बाद शवालय में ले जाकर रख देंगे ।” अतः मैंने डॉक्टर आदि से कहा" पूज्य पुष्करमुनिजी महाराज नीचे स्पेशलवार्ड में हैं, अकेला नहीं ? करेगा ? For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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