SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन १७ . ++ ++++ ++ ++ ++ ++ + ++ ++++ राजस्थानकेसरी उपाध्याय पुष्करमुनिजी महाराज एक आकर्षक व्यक्तित्व 0 मुनि श्री नेमिचन्द्र प्राचीन ऋषि मुनियों के तपःपूत शरीर-सी गौरवर्ण को रसातल में जाते देखकर क्या वह सक्रिय नहीं होगा? उन्नत देह, भरावदार चेहरा, उन्नत प्रशस्त भाल, विशाल मुझे याद है, बड़े ध्यान से स्थितप्रज्ञ की तरह सुस्थिर वक्षस्थल, वृषभ-से स्कन्ध, साखू के पेड़-सा लम्बा सुडौल होकर बिना किसी भाव को मुखमण्डल पर व्यक्त किए कद, उपनेत्र में चमकते हुए दो तेजस्वी चमकीले नेत्र, जो वे मेरी बात को सुनते रहे, फिर सधी हुई आर्षवाणी में देखने-से अधिक, बोलते से प्रतीत होते हैं, मुस्कराती हुई उन्होंने कहा- "मेरी दृष्टि में वर्तमान साधु समाज को न मुखमुद्रा और आजानुलम्बी भुजाएं-यह है राजस्थान तो समाज की दुःस्थिति को देखकर आँखें मूंदे हुए आगे केसरी अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी महाराज भागना चाहिए और न उसे अपनी मौलिक साधुमर्यादाओं, के आकर्षक व्यक्तित्व का बाह्यरूप । साधुता के विशिष्ट गुणों और आत्मसाधना को ही दृष्टि से ___'यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति' इस कहावत के अनुसार ओझल करना चाहिए। उसे न तो लोक-प्रवाह में बहकर, जितना उनका बाह्य व्यक्तित्व आकर्षक है, अन्तरंग सुधारवाद के चक्कर में पड़कर अपनी साधना को तिलांव्यक्तित्व भी उससे कम आकर्षक नहीं है। जलि देनी है और न ही उसे एकान्त अपने ही स्वार्थ या सोजत में सन् १९५३ में जब साधु-सम्मेलन होने तथाकथित आत्मार्थ में फंसकर समाज में आई हुई विकृजा रहा था, उससे पूर्व मेरा उनसे प्रथम साक्षात्कार हुआ तियों को परिष्कृत करने में उपेक्षा करनी चाहिए। था। प्रथम साक्षात्कार में ही उनके व्यक्तित्व ने मुझे प्रभा- समाज अशुद्ध और विकृत होगा तो, उसका स्वयं का वित किया । यद्यपि बिना किसी प्रसंग में उन्हें बोलना विकास भी रुक जाएगा।" कम पसन्द है । यह उनका सहज स्वाभाविक गुण है। मुझे उनके विचार सुनकर आत्म-सन्तोष हुआ। उसके फिर भी उनका मृदु व्यवहार, शान्तिपूर्ण क्रान्ति के विचारों बाद हमारा मिलन हुआ-मरुधरा की राजधानी जोधपुर की ओर झुका हुआ उनका मानस, नपी-तुली शब्दावली में । मैं और मेरे ज्येष्ठ गुरुभ्राता उन दिनों बाल निकेतन में में समाधान करने की उनकी रुचि, शास्त्रीय अध्ययन- ठहरे हुए थे। राजस्थानकेसरी जी महाराज अपनी शिष्यअध्यापन की ओर उनका रुझान, बुलन्द आवाज में सरस- मंडली के साथ घोड़ों का चौक में विराजमान थे। मैं यदासरल युक्तिसंगत प्रवचन, ये सब उनके अन्तरंग व्यक्तित्व कदा बालनिकेतन से शहर में जाता तो आपके दर्शनों के की उत्कर्षता की प्रतीति करा देते हैं। लिए भी जाता था। उस समय आपश्री के साथ आपके उसी दौरान हम सोजतरोड़ में जैनस्थानक में ठहरे तेजस्वी शिष्ययुगल-समर्थ साहित्यकार पं० रत्न श्री देवेन्द्र हुए थे। बातचीत के सिलसिले में मैंने एक प्रश्न प्रस्तुत मुनिजी महाराज एवं व्याख्यानवाचस्पति श्री गणेश मुनि किया, जहाँ तक मुझे स्मरण है, वह प्रश्न यह था-वर्तमान जी महाराज भी थे। उस समय भी आपश्री का मुझ साधु समाज यदि युग के साथ कदम मिलाए बिना तथा अकिंचन के साथ मधुर व्यवहार रहा। आपके तेजस्वी। समाज की विकृतियों को परिमार्जित किये बिना आगे शिष्य-युगल का भी मृदु-मधुर स्नेहसिक्त व्यवहार रहा। बढ़ता जाएगा अथवा समाज की ओर से आँखें मूंदकर क्यों नहीं होता? आप ही का उदारता, मधुर व्यवहार दौड़ लगाता जाएगा, तो वह स्वयं भी लड़खड़ा कर औंधे और आत्मीयता का गुण अपने शिष्यों में प्रतिबिम्बित हुआ मुंह गिर नहीं पड़ेगा? और अपनी आंखों के सामने समाज है। शिष्य गुरु की छाया हुआ करता है। आपकी उदारता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy