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________________ ++++ लेश्या : एक विश्लेषण आनन्द की जिज्ञासा पर तथागत बुद्ध ने कहा- ये छह अभिजातियाँ अव्यक्त व्यक्ति द्वारा किया हुआ प्रतिपादन है । प्रस्तुत वर्गीकरण का मूल आधार अचेलता है। वस्त्र कम करना और वस्त्रों का पूर्ण त्याग कर देना अभिजातियों की श्रेष्ठता व ज्येष्ठता का कारण है । अपने प्रधान शिष्य आनन्द से तथागत बुद्ध ने कहा- मैं भी छः अभिजातियों का प्रतिपादन करता हूँ । ( १ ) कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक ( नीच कुल में पैदा हुआ) हो और कृष्ण धर्म (पापकृत्य) करता है । (२) कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक हो और शुक्लधर्म करता है । (३) कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक हो अकृष्ण – अशुक्ल निर्वाण को समुत्पन्न करता है । (४) कोई व्यक्ति शुक्ला मिजाविक (उच्च कुल में समुत्यन्न हुआ हो तथा शुक्तधर्म (पुण्य) करता है। (५) कोई व्यक्ति शुक्लामिजातिक हो और कृष्ण कर्म करता है । (६) कोई व्यक्ति शुक्लाभिजातिक हो अशुक्ल अकृष्ण निर्वाण को समुत्पन्न करता है । ३२ ૪૬: 6·18 $574 64++++ प्रस्तुत वर्गीकरण जन्म और कर्म के आधार पर किया गया है। इस वर्गीकरण में चाण्डाल, निषाद आदि जातियों को शुक्ल कहा है । कायिक, वाचिक और मानसिक जो दुश्चरण हैं वे कृष्णधर्म हैं और उनका जो श्रेष्ठ आचरण है वह शुक्लधर्म है । पर निर्वाण न कृष्ण है, न शुक्ल है। इस वर्गीकरण का उद्देश्य है नीच जाति में समुत्पन्न व्यक्ति भी शुक्लधमं कर सकता है और उच्चकुल में उत्पन्न व्यक्ति भी कृष्णधर्मं करता है। धर्म और निर्वाण का सम्बन्ध जाति से नहीं है । प्रस्तुत विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि पूरणकश्यप और तथागत बुद्ध ने छः अभिजातियों का जो वर्गीकरण किया है उसका सम्बन्ध लेश्या के साथ नहीं है । लेश्याओं का जो सम्बन्ध है वह एक-एक व्यक्ति से है । विचारों को प्रभावित करने वाली लेश्याएं एक व्यक्ति के जीवन में समय के अनुसार यह भी हो सकती है। छह अभिजातियों की अपेक्षा लेश्या का जो वर्गीकरण है वह वर्गीकरण महाभारत से अधिक मिलता-जुलता है । एक बार सनत्कुमार ने दानवों के अधिपति वृत्रासुर से कहा - प्राणियों के छह प्रकार के वर्ण हैं- (१) कृष्ण, (२) धूम्र, (३) नील, (४) रक्त, (५) हारिद्र और (६) शुक्ल । कृष्ण, धूम्र और नील वर्ण का सुख मध्यम होता है । रक्त वर्ण अधिक सहन करने योग्य होता है । हारिद्र वर्ण सुखकर होता है और शुक्ल वर्णं उससे मी अधिक सुखकर होता है।" Jain Education International महाभारत में कहा है – कृष्ण वर्ण वाले की गति नीच होती है। जिन निकृष्ट कर्मों से जीव नरक में जाता है वह उन कर्मों में सतत आसक्त रहता है। जो जीव नरक से निकलते हैं उनका वर्ण धूम्र होता है जो रंग पशु-पक्षी जाति का है । मानव जाति का रंग नीला है। देवों का रंग रक्त है—वे दूसरों पर अनुग्रह करते हैं । जो विशिष्ट देव होते हैं उनका रंग हारिद्र है । जो महान् साधक हैं उनका वर्ण शुक्ल है। अन्यत्र महाभारत में यह भी लिखा है कि दुष्कर्म करने वाला मानव वर्ण से परिभ्रष्ट हो जाता है और पुण्य कर्म करने वाला मानव वर्ण के उत्कर्ष को प्राप्त करता है । ५ . तुलनात्मक दृष्टि से हम चिन्तन करें तो सहज ही परिज्ञात होता है कि जैन दृष्टि का लेश्या - निरूपण और महाभारत का वर्ण-विश्लेषण - ये दोनों बहुत कुछ समानता को लिये हुए हैं । तथापि यह नहीं कहा जा सकता जैनदर्शन ने यह वर्णन महाभारत से लिया हो। क्योंकि अन्य दर्शनों ने भी रंग के प्रभाव की चर्चा की है। पर जंनाचार्यो ने इस सम्बन्ध में जितना गहरा चिन्तन किया है उतना अन्य दर्शनों ने नहीं किया । उन्होंने तो केवल इसका वर्णन प्रासंगिक रूप से ही किया है। अतः डा० हर्मन जेकोबी का यह मानना कि लेश्या का वर्णन जैनियों ने अन्य परम्पराओं से लिया है, तर्कसंगत नहीं है। कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण ने गति के कृष्ण और शुक्ल ये दो विभाग किये । कृष्ण गतिवाला पुनः पुनः जन्म-मरण ग्रहण करता है, शुक्ल गतिवाला जन्म और मरण से मुक्त हो जाता है ।" For Private & Personal Use Only ******* धम्मपद में धर्म के दो विभाग किये हैं- कृष्ण और शुक्ल । पण्डित मानव को कृष्णधर्म का परित्याग कर शुक्लधर्म का पालन करना चाहिए। महर्षि पतंजलि ने कर्म की दृष्टि से चार जातियां प्रतिपादित की हैं- (१) कृष्ण (२) शुक्लकृष्ण (२) शुक्ल O www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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