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________________ ३८४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : चतुर्थ खण्ड marrrrrrrrrrrrrrrrrrrormirmirmirrrrrrrrrrrrrrrr+++++ हमारे जन्म को एक आकस्मिक घटना मात्र मानने वाली धारणा से अपने आपको उन्मुक्त करना एक बौद्धिक आवश्यकता है। इसी कारण अनेक अस्तित्वों की आधारभूत धारणा का यह सिद्धान्त कि आत्मा का अस्तित्व सदैव रहेगा, हमारी विचार-शक्ति को बहुत उच्च एवं उत्साहप्रद प्रतीत होता है। यदि हमारे पूर्वजन्मों के हमारे अपने किये हुए कर्मों से ही हमारे वर्तमान जीवन की स्थितियों का निर्धारण होता है तो यह हमारे दुर्भाग्य-जनित दुखों से त्राण करने के साथ भावी को सुखद बनाने के पुरुषार्थ को करने की प्रेरणा देता है और यह चिन्तन करने को अवसर देता है कि यह अवसर प्रच्छन्न सौभाग्य को अनावृत करने वाला हो। यदि हमारे भाग्य निर्माण में हमारा अपना कोई हाथ नहीं है, किन्तु सब कुछ नियति पर निर्भर है तो भलाई, बुराई, नैतिकता, अनैतिकता आदि की सभी संहितायें व्यर्थ हैं और तब आशा का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि सम्पूर्ण सुख का मूल आशा ही है । आशा के सहारे ही मनुष्य वर्तमान की विकट से विकट परिस्थिति में भी अपने प्रयत्नों से विराम नहीं लेता है। पुनर्जन्म के सिद्धान्त ने न केवल हमारे बीच पाई जाने वाली व्यापक विषमताओं की एक न्याययुक्त व्याख्या हमारे सामने प्रस्तुत की है किन्तु हमारे लिए भावी विकास एवं उन्नति का मार्ग भी खुला रखा है कि यद्यपि आज की स्थिति हमारे पूर्वजन्मों का परिणाम है किन्तु भावी परिस्थितियों का निर्माण हमारे अपने कर्मों पर निर्भर है । भले ही अतीत में हम प्रमादवश अपने जीवन को संवार न पाये हों, लेकिन वर्तमान हमारा है। इसको हम जैसा बनायेंगे, उससे वर्तमान सुखद होने के साथ अनागत भी स्वर्णिम होगा । इसलिए ज्योंही इस पुनर्जन्म को स्वीकार कर लेते हैं त्योंही हमारे सम्पूर्ण सुख-दुःख का कारण हमारी समझ में आ जाता है और हम अपने भविष्य के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं। यह सत्य है कि शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप अच्छी-बुरी योनियों में जन्म होता है । यदि शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप अच्छी-बुरी योनियों में जन्म होना न माना जाये तो इस जैविक सृष्टि में विविधतायें ही नहीं होती और उसी स्थिति में या तो सभी प्राणियों को मनुष्य ही होना चाहिये था या अन्य कोई शरीरधारी। लेकिन विविधतायें दृष्टिपोचर हो रही हैं और यह प्राणी कभी क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण या कभी चाण्डाल कुल में जन्म लेता है। कभी देव, नारक, वर्णसंकर आदि कहलाता है। इतना ही क्यों? कभी कीट, पतंगा, कुंथुआ या चींटी तक होता है और इस प्रकार कृतकर्मों के अनुसार योनि, शरीर आदि प्राप्त करके कर्मविपाक को भोगता रहता है। इस मान्यता से व्यक्ति और समाज दोनों को लाभ होता है और वह लाभ है व्यक्ति की बुरे कार्यों की ओर प्रवृत्ति न होना और अच्छे कार्यों में प्रवृत्त होना-असुहादोविणवित्ति सुहे पवित्ती। यह स्थिति तभी बनेगी जब पुनर्जन्म माना जायेगा । पुनर्जन्म में आस्था रखने वाला तो प्रत्येक स्थिति में यही अनुभूति करता है-मेरी जैसी ही आत्मा सबकी है और उनकी जैसी ही मेरी आत्मा है । उनकी और मेरी आत्मा के गुणों, शक्ति आदि में समानता है, किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। वे भी अपने अध्यवसाय द्वारा नर से नारायण बन सकते हैं । मेरी आत्मा की वर्तमान स्थिति कैसी भी हो लेकिन भूतकाल में अन्य जीवों जैसी हुई है और भविष्य में भी हो सकती है। जीव मात्र किसी न किसी समय परस्पर निकट सम्बन्धी रहे हैं और भविष्य में भी बन सकते हैं। लेकिन ये संसार के नाते-रिश्ते ठीक उसी प्रकार के हैं, जिस प्रकार समुद्र में तरंगों से टकराकर आये हुए दो काष्ठ कभी एक-दूसरे से मिल जाते हैं । इसलिये किससे द्वेष करू और किससे राग करूं? मेरे लिये तो सभी प्राणी आत्मीय हैं और उनके साथ प्रेम सौहार्द है। इस प्रकार जो मनुष्य सब प्राणियों में अपने को और स्वयं में सब प्राणियों को देखता है-आत्मवत् सर्वभूतेषु, वह कभी भी किसी से घृणा, द्वेष, बुरा, बर्ताव नहीं करता है। क्योंकि आत्मतुल्य मानने वाले व्यक्ति के लिये सभी प्राणी अपने आत्मस्वरूप ही हो जाते हैं। यह मान्यता और विश्वास तभी बनता है जब आत्मा की अजरता, अमरता में आस्था होने के साथ पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की शृङ्खलाबद्ध धारा में निष्ठा हो। परलोक तथा पुनर्जन्म के प्रति आस्था रखने के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति यह समझता है कि उसका सुखदुःख, श्रेष्ठत्व, कनिष्ठत्व, सद्गुणों का सद्भाव-असद्भाव आदि सब उसी के पूर्वजन्मों में किये गये कर्मों के परिणाम हैं और इस जन्म में यदि वह अपने कर्मों में और अधिक सुधार करले तो इह व पर जन्म में और अधिक श्रेष्ठ एवं सुखी बन सकता है । इसके साथ उसे यह भी विश्वास हो सकता है कि जीवन का चरम लक्ष्य-मोक्ष इस जन्म में प्राप्त नहीं हो रहा है, लेकिन ऐसा नहीं है कि उसे मैं प्राप्त न कर सकूँ । उचित प्रयत्न में रत रहने से वह आने वाले जन्मों में अवश्य प्राप्त होगा। पुनर्जन्म को मानने के लाभों का यदि संक्षेप में संकेत करें तो यह होगा कि किसी भी एक वर्तमान जन्म में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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