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________________ पुनर्जन्म सिद्धान्त: प्रमाणसिद्ध सत्यता ३८३ ++++++++ कि पुनर्जन्म क्यों मानना चाहिए ? क्योंकि कर्म किया और उसका उसी समय फल मिल गया तो यह कैसे माना जा सकता है कि कर्मफल-भोग के लिए जन्मान्तर होना भी आवश्यक है ? और यदि जन्मान्तर, पुनर्जन्म मान भी लिया तो उससे क्या लाभ ? अनात्मवादियों, प्रकृतिवादियों या विकासवादियों के पास इसका कोई उत्तर नहीं है । यदि हम पूर्वजन्म और उत्तरजन्म से निरपेक्ष वर्तमान जीवन को ही जीवन का प्रथम प्रवेश मान लें तो हमारी चेतना परिमित हो जाती है । परन्तु यह सभी स्वीकार करते हैं कि आध्यात्मिक तथा बुद्धिजीवी प्राणी होने के कारण मनुष्य को अपनी सीमितताओं का अतिक्रमण करना चाहिए। वह ससीम में कभी सन्तुष्ट नहीं हुआ है और अतिक्रमण ही उसके जीवन की सच्ची महत्ता है । हमारे अन्तर में व्याप्त चेतना अनावृत्त चेतना का अंश नहीं है । किन्तु उतनी ही परिपूर्ण और क्षमता वाली है । वह भी उसी के समकक्ष है । विश्वव्यापकता की धारणा एक नया उन्मेष, उत्साह अभिव्यक्त करती है और उस अदम्य आकांक्षा के साथ आगे बढ़ती है कि व्यक्ति के रूप में हमारे इस वर्तमान भौतिक प्राकट्य से पूर्व मी हमारा अस्तित्व था एवं इसके उत्तरवर्ती काल में भी रहेगा । पूर्वजन्म और पुनर्जन्म न मानने का अर्थ होता है कि हमारा वर्तमान जीवन आकस्मिक है, वह यहछा से, बिना किसी कारण के और बिना किसी उद्देश्य के होता है और वैसे ही उसका अन्त हो जाता है। इसका आशय यह हुआ कि यहाँ कार्यकारण भाव संबंध ने विराम ले लिया । किन्तु यह विश्व यदृच्छा परिणाम नहीं है, बल्कि सुसम्बद्ध, सुव्यवस्थित अतएव कार्यकारणभाव से बद्ध है । यदि यह जन्म है तो इसका कोई कारण होना चाहिए और वह इस जन्म से पूर्व ही होना चाहिए। क्योंकि कारण का स्वरूप ही यह है कि वह कार्य के नियत क्षण से पूर्ववर्ती हो। इसी प्रकार यदि यह जन्म है तो भावी जन्म भी अवश्य होना चाहिए क्योंकि वर्तमान जन्म में भावी जन्म के बीज बोये जाते हैं और यह अज्ञानमूलक भवचक्र तब तक चलता रहता है, जब तक यथार्थ ज्ञान के द्वारा उसका आत्यन्तिक उच्छेद नहीं हो जाता है । हमारा वर्तमान जन्म ही हमारे पूर्व जीवन और मरणोत्तर अस्तित्व को सिद्ध करता है और उसके लिए यह अबाधित सिद्धान्त पर्याप्त प्रमाण है—'नासतो विद्यतेभावो नाभावो विद्यते सतः' असत् का कभी भाव (उत्पाद) नहीं होता है और सत् का कभी अभाव (विनाश) नहीं हो सकता है। पाश्चात्य विचारकों ने भी इस सिद्धान्त को स्वीकार किया है तथा भौतिक विज्ञान के अनुसार जगत् में किसी भी पदार्थ का नाश नहीं होता है किन्तु रूपान्तर मात्र होता है । विज्ञान शक्ति के संरक्षण सिद्धान्त में और पदार्थ की अनश्वरता के सिद्धान्त में विश्वास करता है। जब जगत के जड़ पदार्थों की यह स्थिति है तब आत्मा के भी पदार्थ होने से उसकी धारावाहिक अनश्वरता स्वयमेव सिद्ध होनी चाहिए । पूर्वजन्म और पुनर्जन्म तो उसके रूपान्तर मात्र हैं । प्राणिमात्र में जिजीविषा की उत्कट आकांक्षा के दर्शन होते हैं । लेकिन इसके साथ मरणभय का भी उनसे सम्बन्ध जुड़ा हुआ है । संसार के समस्त भयों में यदि कोई सबसे बड़ा भय है तो वह मरण का भय हो सकता है । कोई मी प्राणी नहीं चाहता कि मेरा मरण हो । लेकिन इसके अस्तित्व को नकारा नहीं जाता है । फिर भी आज जो हम विकास, कला, संस्कृति, स्थापत्य आदि के प्रांजल रूप का दर्शन करते हैं तो उसके पीछे यह विश्वास है कि मरण शरीर का होता है । मरण शरीर को नष्ट कर सकता है और मैं तो सदैव रहने वाला हूँ-सम्भवामि युगे युगे । यह विश्वास बना कैसे ? यदि इसके कारण की मीमांसा करने जायें तो स्पष्ट हो जायेगा कि पुनर्जन्म के अवलम्बन से जीवितेच्छा की पूर्ति होती रहती है । समय पड़ने पर शरीरोत्सर्ग करने में भी हिचकिचाहट नहीं होती है । Jain Education International विश्व के सभी धर्मों और धर्माचार्यो, चिन्तकों ने हमें यही आस्था यह हमारा वार्तमानिक जीवन अतीत के अनेक जीवनों के पश्चात् हमें इसके तैयार करने वाला एक पड़ाव है। हमने यदि इस उपदेश पर ध्यान दिया तो हमें जन्मों और अवसानों की निरन्तरता रखने का उपदेश दिया है कि पृथ्वी का बाद के अनन्त और उच्च जीवन के लिए पर विश्वास करना ही पड़ेगा। क्या इस शरीर में हमारे अस्तित्व के केवल एक सीमित दायरे के कुछ एक अनुभवों पर हमारे अनन्त जीवन को निर्भर किया जा सकता है ? और ऐसा करना क्या युक्तिसंगत भी होगा ? अमरता का कोई भी सिद्धान्त प्राक् अस्तित्व को अनिवार्य मानकर ही आगे बढ़ सकता है। वैयक्तिक अमरता पर आस्था रखने वाले यदि पुनर्जन्म को स्वीकार कर लें तो उनके विश्वास का युक्तिसंगत आधार अधिक पुष्ट हो सकता है। उस स्थिति में शरीर से भिन्न दीर्घकालव्यापी आत्मा का अस्तित्व मानना ही होगा जो एक ऐसी विकासमान प्रक्रिया में संलग्न है जिसे अनेक जन्मगत शरीरों की आवश्यकता है । For Private & Personal Use Only 90 www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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