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________________ ३६. श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड और जहां-आत्मा है वहाँ ज्ञान है । ज्ञान कभी आत्मा से अलग नहीं होता । जैनदर्शन के महान् दार्शनिक आचार्य अमृतचन्द्र ने भी कहा है : "आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं, ज्ञानादन्यत्, करोति किम् ?" -आत्मा साक्षात् ज्ञान है और ज्ञान ही साक्षात् आत्मा है । ज्ञान और आत्मा दो नहीं, एक ही है । आत्मा की व्याख्या करते हुए जन मनीषियों ने बताया : केवल णाण सहावो केवल दंसण-सहाव सुहमइओ। केवल सत्तिसहावो सोहं इदि चिन्तए गाणी।' अर्थात्-आत्मा एकमात्र केवलज्ञान और केवलदर्शन स्वरूप है, संसार के सर्व पदार्थ को जानने-देखने वाला है । वह स्वभावतः अनन्त शक्ति का धारक और अनन्त सुखमय है। आचार्य कुन्द-कुन्द के अध्यात्म ग्रन्थ तो प्रधानतया आत्म स्वरूप का ही प्रतिपादन करते हैं । तर्क युग के आचार्य भी तर्कों के विकट वन में रहते हुए भी आत्मा को भूले नहीं । इस प्रकार जनदर्शन ने अपनी संपूर्ण शक्ति आत्मस्वरूप के प्रतिपादन में लगादी है। आत्मा को देखने का प्रयत्न करते हुए ऋषियों ने, चिन्तकों ने, दार्शनिकों ने, तत्ववेत्ताओं ने अपने-अपने, भिन्नभिन्न दृष्टिकोण से भिन्न-भिन्न समय में, उपासना के द्वारा चिन्तन-मनन के द्वारा, अपने-अपने अनुभवों को शब्द शृंखलाओं में आबद्ध किया। आत्मा तथा उसके गुणों के क्रमिक विकास के अनुसार क्रमबद्ध एक शृखला में गोपुच्छाकार, सूत्रबद्ध जपमाला के समान उन विकसित रूपों को गूंथकर दार्शनिक ग्रन्थों के रूप में रखने का प्रयत्न किया। इस प्रकार सभी दर्शनों में जड़ और चेतन या ब्रह्म और माया को स्वीकार किया गया है। अनेक कथनों में उसके स्वरूप की भिन्नता भले ही हो, परन्तु आत्मा के अस्तित्व पर सन्देह नहीं किया जा सकता । अन्ततः निष्कर्ष स्वरूप में कहा जा सकता है कि आत्मा ज्ञानमय है भगवद्गीता की भाषा में अविनाशी, स्वभावतः ऊर्ध्वगामी और जड़ तत्व से भिन्न है। जड़ तत्व से भिन्नता के रूप में किसी न किसी रूप में वैज्ञानिकों ने भी विचार किया है । वस्तुतः वह चेतना अन्य कुछ भी नहीं, बल्कि आत्मा ही है। क्योंकि 'मैं' हूँ इस अस्तित्व का बोध अस्वीकार नहीं किया जा सकता। O M-0-0--0--0--0--0--0-0--0--0--0--0-0--0--2 -------पुष्क र वाणी---------------------------------------2 शिशु का हँसना शिशु का रोना, हँसने का माध्यम बनता। शिशु के साथ खेलने का कुछ, रंग अनोखा ही छनता ।। अधिक न सोता, अधिक न रोता, होता अधिक उदास नहीं। अधिक मोह करने का मानो, शिशु को पूर्वाभ्यास नहीं । शैशव का सौन्दर्य साहजिक, आवश्यक शृगार नहीं। शिशु के मन पर तन पर अंकित कोई पाप विकार नहीं। शिशुमय प्रभु हैं, प्रभुमय शिशु है, कृतियाँ भिन्न भावना एक । शिशु को देख, देख या प्रभु को, इन दोनों के रूप अनेक ।। कुछ सुनकर कुछ देखभालकर, शिशु मन करता ग्रहण तुरंत । आगे जाकर उसी ज्ञान का, हो जाता विस्तार अनन्त ॥ hwor-o--------------------------------------------- --0--0--0--0--0--0--0--0--0--0 -0-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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