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________________ भारतीय दार्शनिक परम्परा और स्याद्वाद २८३ . Pls भारतीय दार्शनिक परम्परा और स्याद्वाद * डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री एम० ए० पी-एच०डी० साहित्यरत्न भारतवर्ष अत्यन्त प्राचीन काल से दार्शनिकों का देश रहा है। विभिन्न ऋषि-महर्षि, सन्त-महन्त, यति-साधु, योगी-महात्मा एवं सत्यद्रष्टाओं के अनुभव तथा चिन्तन से समय-समय पर दार्शनिक क्षेत्र में कई प्रकार के विचारों में परिवर्तन हुआ, और परिणामस्वरूप कई प्रकार के मतों तथा वादों का जन्म हुआ । व्यक्ति और जाति की भिन्नता की भाँति विचारों की भिन्नता भी निरन्तर वृद्धिंगत होती रही। यद्यपि इन विभिन्न विचारों का मूल एक है, किन्तु बहुविध शाखा-प्रशाखाओं के रूप में विकसित हो जाने के कारण आज स्वतन्त्र रूप में तथा भिन्न नामों से अभिहित होने लगे हैं । मुख्य रूप से इनकी संख्या दस है-चार्वाक, वैशेषिक, नैयायिक, सांख्य, योग, कर्ममीमांसा, दैवीमीमांसा, ब्रह्ममीमांसा या वेदान्त, बौद्ध और जैन । इनके मुख्य रूप से दो विभाग किए जा सकते हैं-भौतिकवादी और आध्यात्मिक । चार्वाक भौतिकवादी और शेष आध्यात्मिक रहे हैं। पाश्चात्य जगत् में भौतिकवाद का प्रारम्भ यूनानी विचारक थेलिस -(ई० पू० ६१४-५५०) से माना जाता है और इसका चरम विकास कार्ल मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में परिलक्षित होता है । भूतवादी और आत्मवादी शत-सहस्राब्दियों से इस देश में रहे हैं । भूतवादी केवल पंचभूतों से या भौतिक तत्त्वों से मानव तथा सृष्टि की उत्पत्ति मानते हैं। वे आत्मा के अस्तित्व तथा पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं करते । किन्तु आत्मवादी जड़ सृष्टि से आत्मा को भिन्न, अजर-अमर तथा बन्धन-मोक्ष, क्रिया काल एवं गतिशील मानते हैं। भारतीय चिन्तन के अनुसार आत्मतत्व सबसे श्रेष्ठ कहा गया है। आत्मवादी उसे अनादिनिधन एवं सर्वोपरि मानते हैं। भारतीय आध्यात्मिक दर्शनों की भाँति जनदर्शन भी आत्मवादी है, जो आत्मा को सर्वतन्त्र, स्वतंत्र एवं सनातन मानता है । आत्मा ही समस्त ज्ञान-विज्ञानों का आधार है । जो आत्मा है वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वह आत्मा है । जिससे जाना जाता है वह आत्मा है। जानने की सामर्थ्य से ही आत्मा की प्रतीति होती है। आत्मा ही सुख-दुःख का अनुभव करने वाली तथा इन्द्रियों के विषयों को जानने वाली है । आत्मा अनादि अनन्त है । अनादिकाल से हमारी आत्मा कर्मों से आबद्ध है, किन्तु कर्मों से मुक्त हो सकती है। कर्मों से मुक्त हो जाना ही मुक्ति है । आत्मा चेतन है और कर्म जड़ है। दोनों के परस्पर अवगाढ़ सम्बन्ध का नाम संसार है । दोनों ही अनन्त शक्ति के आधार हैं। केवल आत्मा और पुद्गल को ही नहीं धर्म, अधर्म, आकाश और काल को भी द्रव्य माना गया है। पुद्गल के चार भेद हैं-स्कन्ध, स्कन्धप्रदेश, स्कन्धदेश और परमाणु । बादर और सुक्ष्म रूप से परिणत छह स्कन्धों से इस संसार की रचना हुई है। द्रव्य सत् है । और जो सत् है वह परिवर्तनशील है। किन्तु उसका सम्पूर्ण क्षय कभी नहीं होता । उसकी विभिन्न पर्यायें समय-समय पर बदलती रहती हैं । परन्तु मूल रूप में कभी हानि नहीं होती । अपने मूल रूप को द्रव्य कभी नहीं खोता । जैनदर्शन के अनुसार यह परिणाम प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप है । गीता का भी यही सिद्धान्त है'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः' अर्थात् असत् की उत्पति नहीं होती और सत् का सर्वथा अभाव नहीं होता। सत्वाद का यह सिद्धान्त भारतीय आत्मवादियों का मूल सिद्धान्त रहा है, जो आज तक स्थिर है । जैनदर्शन के अनुसार सत् और असत् दोनों का समावेश भाव में होता है । भाव न केवल सत् है और न असत् । संसार में जितने भी पदार्थ हैं वे सब सत्-असत् रूप हैं । कभी सत् का विनाश और असत् का उत्पाद नहीं होता। इसी प्रकार अविभाज्य सत् को परमाणु कहा गया है। परमाणु सूक्ष्म, नित्य, एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण और दो स्पर्श वाला होता है तथा कई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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