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________________ ***** तृतीय खण्ड गुरुदेव की साहित्यधारा सतुमिव तितङना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रमत । अत्रा सखाय सख्यानि जानते मां लक्ष्मीनिहताथि वापि । जल को छानकर पिया जाता है, लिया जाता है वैसे ही वाणी को विचार या वाणी को हम वक्तृता कह सकते हैं। जैसे सत्तू को ग्रुप से परिष्कृत (शुद्ध) करते हैं वैसे ही मेधावी जन अपने बुद्धिबल से परिष्कृत की गई भाषा को प्रस्तुत करते हैं। विद्वान् लोग वाणी से होने वाले अभ्युदय को प्राप्त करते हैं, इनकी वाणी में मंगलमयी लक्ष्मी निवास करती है । २२६ ********+ फल को धोकर खाया जाता है, आटे या सत्तू को भी छानकर काम में बुद्धि से परिष्कृत कर बोला जाता है। विचार या बुद्धि से परिष्कृत वैसे तो बोलने वाले को वक्ता कहा जाता है, किंतु यह वक्ता का सिर्फ शब्दार्थ है, भावार्थ नहीं । वास्तव में जो विचारपूर्वक उपयुक्त वाणी बोलता है - वही वक्ता होने का अधिकारी हो सकता है। इसके साथ-साथ बक्ता में अनेक अन्य विशेषताएँ भी होनी चाहिए जिनमें सबसे पहली विशेषता है— चरित्र संपन्नता । वक्ता अगर चरित्र से हीन है, खोखला है तो कितनी भी अच्छी बात चाहे जितनी सुन्दर भाषा में कहता है, श्रोता उसकी समस्त वक्तृता को एक फूक में उड़ा देंगे – “भीतर से खोखला है ।" वाणी को प्रभावशाली और वक्तृता को तेजोदीप्त बनाने के लिए - वक्ता को चरित्र संपन्न या गुणवान् होना भी निहायत जरूरी है। महान अनुभवी आचार्य संघदासगणी ने कहा है गुण सुट्ठियस्स वयणं, घयपरिसित्तुब्व पावओ भाई । गुणहोणस्स न सोहद नेह बिहणो जह पईयो । गुणवान चरित्रवान वक्ता का वचन घी से प्रज्ज्वलित अग्नि की भाँति अधिक तेजस्वी होता है, जबकि चरित्रहीन वक्ता का वचन बिना तेल बाती के दीपक की तरह मिट्टी का पिंडमात्र है । Jain Education International रोशोका नामक एक पश्चिमी चिन्तक ने कहा है- 'वक्तृत्व कला केवल शब्दों के चुनाव में ही नहीं हैं, शब्दों के उच्चारण में, आँखों में, चेष्टाओं में और जीवन व्यवहार में भी होती है ।" वरन् जिसकी वाणी नहीं, हृदय बोलता है, वह श्रोताओं के हृदय को पकड़ता है और जो चाहता है, वह स्वेच्छया सब कुछ करा लेता है, बल्कि श्रोता वह सब कुछ करने को स्वयं बाध्य हो जाता है । सन् १८६३ सितम्बर ११ को अमेरिका के चिकागो नगर में विश्वधर्म परिषद् में एक भारतीय संन्यासी ने कुछ मिनट का समय माँगकर भाषण प्रारंभ किया । वहाँ की परम्परा के अनुसार सभी वक्ता 'लेडीज एण्ड जेन्टलमेन' सम्बोधन करते थे । पर भारतीय संन्यासी जो 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का मंत्र जप रहा था, खड़ा हुआ तो सहसा उसके मुख से निकल पड़ा - सिस्टर्स एंड ब्रादर्स आफ अमेरिका “अमेरिकन बहनों और भाइयों !' बस, इसी सम्बोधन ने ही वह जादू कर दिया कि सभा तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठी और श्रोता घंटों तक उस भारतीय संन्यासी स्वामी विवेकानंद का भाषण सुनते रहे मंत्र-मुग्ध से बने । - विवेकानंद के शब्दों में जो शक्ति थी वह शब्दों की नहीं. किंतु उसकी आत्मा की विश्व-बंधुत्व भावना की शक्ति थी । अन्तःकरण की शक्ति ही वक्ता के भाषण को ओजस्वी और जादुई बना सकती है । श्री स्थानकवासी जैन- परम्परा के एक ओजस्वी वक्ता उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी एक ऐसे ही कुशल प्रवक्ता हैं जिनकी वाणी में विचार और विचार में आचार की विद्युत तरंगें लहराती रहती हैं। उनके भाषण मैंने सुने भी हैं, पढ़े भी हैं, और पढने-सुनने के बाद ही मैं उनके भाषणों को 'प्रवचन' संज्ञा देना चाहता हूँ। उन्हें वाग्मी ( वाणी के स्वामी) और प्रवक्ता कहने के बजाय कुछ और आगे बढ़कर जैन परिभाषा के 'प्रवचन- कुशल' शब्द से सम्बोधित करना चाहता हूँ। क्यों ? इसका संक्षेप में उत्तर इस प्रकार है— १ ऋग्वेद १०।७११२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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