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________________ Jain Education International २२८ goo. श्री पुष्करसुनि अभिनय प्रवचन- कुशल विचार और वाणी के धनी श्री पुष्करमुनि [ प्रवचन साहित्य एक चिन्तन ] प्राणिजगत में मनुष्य सब से श्रेष्ठ प्राणी माना गया है। उसकी अनेक उत्तम उपलब्धियों में 'वाणी' सर्वोतम उपलब्धि है । भाव तो पशु में भी उत्पन्न होते हैं, किंतु उनको प्रकट करने की क्षमता, अभिव्यक्ति की पूर्ण सामर्थ्य मात्र मनुष्य में ही है । → श्रीचन्द गुराना 'सरस' भाव या विचार रूप आत्मा को भाषारूप देह ही आकार देती है । भाषा के सोपान से ही भावों के सौध पर चढ़ा जाता है । इसलिए संसार के समस्त व्यवहार का माध्यम भाषा है, वाणी है। विचारों की विद्युत को दूरदूर तक पहुँचाने का काम वाणी रूप तारों से ही संपन्न होता है। विचार शून्य भाषा ( वाणी ) निरर्थक है तो भाषा (वाणी) हीन विचार भी अनुपयोगी है। भाषा विचारों की संवाहिका है। वाणी विचारों की सौरभ को फैलाने वाली पवन है । भाषा या वाणी की इस महिमा को व्यक्त करने के लिए ही वाणी को वाग्देवता के रूप में प्रतिष्ठा दी गई है । वाचा सरस्वती भिषग्- कहकर वाणी को ज्ञान की अधिष्ठात्री सरस्वती के रूप में भी मान्यता भी दी है। और समाज के विकृत आचार-विचाररूप रोग का निवारण करने में समर्थ होने के कारण उसे भिषग्-वैद्य के रूप में भी स्वीकार किया गया है । अन्तर्हृदय की असीम ऊँचाई से प्रस्फुटित होकर शब्दों की धारा में बहने के कारण वाणी को पवित्र नदी माना है और इसी सरिता के जल सिंचन से संस्कृति साहित्य का उद्यान या खेत हरा-भरा होता है । १ यजुर्वेद १९।१२ २ सम्यक् स्रवन्ति सरितो न घेना:- यजुर्वेद १७/६४ बाणी मोह-प्रमाद एवं अज्ञान की नींद में सोये प्राणी को जगाने में प्रचंड शंखनाद है, तो कर्तव्यहीन और आलसी को सचेतन करने में संजीवनी बूटी है। वाणी की एक किरण संसार का अंधकार मिटा सकती है। वाणी की एक लहर में संसार को आल्हादित करने की अद्भुत क्षमता भरी है। वाणी ज्योति है, आग है, लहर है, तूफान है और अमृत को विष व विष को अमृत बनाने वाला अद्भुत जादू है । जीवित को मुर्दा बनाना और मुद्दों में जान फूंकना वाणी का खेल है । सचमुच वाणी अक्षय शक्ति का भण्डार विद्युत से कम नहीं है । भर्तृहरि ने इसीलिए तो कहा है वाग् भूषणं भूषणम् वाण्येका समलंकरोति पुरुषं अगर पुरुष को अलंकृत करने वाला कोई सच्चा आभूषण या अलंकरण है तो वह वाणी ही है । वक्तृता वाणी की महिमा व शक्ति का बोध हो जाने पर हम यह समझ लेंगे कि इस वाणी का उपयोग किस रूप होता है, हुआ है, जैसा कि पहले कहा है-वाणी-हीन विचार का कोई महत्त्व नहीं है तो विचार-शून्य वाणी भी बिल्कुल निरर्थक है, निरुपयोगी है, मात्र पागल का प्रलाप है । वाणी के पीछे विचारों का तेज, भाषा के पीछे भावों की शक्ति होना नितान्त जरूरी है । वही वाणी मुर्दों में प्राण फूंक सकती है, अंधों के नेत्र खोल सकती है जिसमें विचार की प्रचंड शक्ति होगी। इसलिए कहा है FO अर्थ भारवती वाणी भजते कामपि श्रिमम् अर्थ- गौरव से युक्त वाणी की शोभा और सक्ति कुछ निराली ही होती है। विचारों से परिष्कृत वाणी के सम्बन्ध में ऋग्वेद में एक बहुत अच्छा सूक्त है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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