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________________ a . २२४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन पन्थ जन-समुदाय भी इसे समझ सकता है और मनोरंजन के साथ-साथ जीवन की विषमता से ही वह भावगत हो सकता है। ये समस्त कहानियाँ एक विशेष लक्ष्य को लेकर लिखी गई है । और आचार-व्यवहार प्रथा-परम्परा को जीवित रखने वाली ये कथाएँ समय-समय पर स्वरूप परिवर्तित करके भी अपनी त्यागमयी भावना को तिलांजलि नहीं दे सके हैं। कथाकार ने इन कथाओं में भोगे हुए यथार्थ को अंकित किया है, मानव की कुण्ठाओं का भी परिचय दिया है, और सामाजिक समस्याओं को भी रूपायित करने का सफल प्रयास किया है । यहाँ सहज विद्वत्ता है, भाव-प्रवणता है और कल्पनाशीलता के कोमल दृश्य भी हैं। विषयप्रतिपादन में सक्षम कथाकार ने अनेक शास्त्रों के उद्धरण देकर अपने कथ्य को समर्पित किया है।' कहावतों एवं मुहावरों के सहज प्रयोग से भाषा बलवती बनी है और भाव-प्रदर्शन में एक अनोखा ओज आ गया है । यहाँ सन्त हैं, साधु हैं, जादूगर हैं, मंत्रवेत्ता है, और साथ ही साथ सांसारिक वैभव की छाया में मनोविनोद करने वाले लक्ष्मीपुत्र हैं और साथ ही साथ राजा-महाराजाओं के अलौकिक आमोद-प्रमोद हैं। यह सब होते हुए भी बनवासी भीलों की भी यहाँ दीनतापूर्ण अर्थव्यवस्था है । वनजारों की वाणिज्य-व्यवस्था के भी यहाँ अनेक संकेत उपलब्ध हैं। कहीं-कहीं अन्तविरोध परिलक्षित अवश्य होता है, लेकिन यह विरोधाभास-सा है । दर्द को जीवित रखने के लिए कथाओं के समस्त पात्र मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत हैं। शिल्प और भाषा-वैशिष्ट्य इतना प्रभावशाली एवं मनोहर है कि कथाओं में सन्निहित भावनाएँ स्वयं वाचाल हो जाती हैं । श्री मुनिजी की शैली में कहावतों का प्रचुर प्रयोग तपःपूत श्री पुष्कर मुनिजी ने बड़ी कुशलता से विभिन्न भाषाओं की कहावतों का यथावसर प्रयोग करके भाषा की व्यंजना-शक्ति में एक ओर पर्याप्त अभिवृद्धि की है तो दूसरी ओर भावनाभिव्यक्ति को जीवन्तता प्रदान की है। यहाँ यह उल्लेख है कि पूज्य मुनिजी ने कहावतों को अपनाने में किसी भी रूप में संकीर्णता को अभिव्यक्त नहीं किया है वरन् व्यापक दृष्टि को प्रस्तुत करने में वे सर्वत्र सजग रहे हैं । लोक-ग्राहिणी प्रतिभा का समुचित विकास इन कहावतों के उप योग से ही संभव है। इसीलिए साधु-सन्तों ने अपनी कृतियों में लोकप्रियता को विशेषतः अभिव्यंजित करने के लिए जहाँ लोक-प्रचलित शब्दों को व्यवहृत किया है वहाँ लौकिक उपाख्यानों, उक्तियों, किंवदन्तियों आदि को बड़ी कुशलता से विवेच्य विषय को पूर्ण आस्था-निष्ठा से आलोकित किया है । लोक की मानवीय प्रतिष्ठा सत्तावान् इसी प्रकार निर्मित होती है। 'कहावत-जिसे संस्कृत में लोकोक्ति और उर्दू में मसल या मसला भी कहते हैं-अपनी शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से एक बहु-विचारणीय शब्द रहा है। इस सम्बन्ध में विद्वान् एक मत नहीं हैं। पं० रामदहिन मिश्र 'कहावत' का मूलरूप कथावत् मानते हैं। उनके अनुसार जिसप्रकार कथाएँ लोक में प्रचलित और प्रसिद्ध होती हैं उसी प्रकार कहावतें भी। स्वर्गीय श्री केशवप्रसाद मिश्र 'कह' धातु के आगे अरबी का 'आवत' प्रत्यय लगाने से कहावत शब्द की व्युत्पत्ति मानते हैं । डॉ. सिद्धेश्वर वर्मा के अनुसार 'कहावत' की व्युत्पत्ति हिन्दी 'कहना' से हुई है और इसके आगे दो प्रत्यय 'आप' तथा 'अत' जुड़ गये हैं। टर्नर ने अपने नेपाली शब्द-कोश में कहावत का अनुमानित मूलरूप 'कथावार्ता' बतलाया है। हिन्दी के कई विद्वान्-राहुलजी, डॉ. बाबूराम सक्सेना, और मुनि जिनविजय जी-इसी विचार के समर्थक हैं । डॉ. कन्हैयालाल सहल के शब्दों में 'कथावार्ता' का प्राकृत रूप 'कहावत्ता' तो ध्वनि और अर्थ दोनों की दृष्टि से कहावत शब्द से अत्यधिक मिलता-जुलता है।'४ "कहावत' किसी विशिष्ट समुदाय में प्रचलित कोई ऐसा वाक्य है, जिसे लोकानुभव पर आश्रित जीवन की सारभूत समीक्षा कहा जा सकता है । कुल मिलाकर कहावत लोक में प्रचलित वह वाक्य कथन या लघु वार्ता ही ठहरती है जिसे लोकमानस के अतंराल से प्रस्फुरित ज्ञान की कोई किरन माना जा सकता है। भाषा की संजीवनी' यह लोकोक्ति विविध रूपों में जैन कथाओं के विभिन्न भागों के धरातल को इस प्रकार आकर्षक तथा वजनदार बनाती है(१) लातों के देव बातों से नहीं मानते । -जै. क. भा. ३, पृष्ठ ४८ १ कहावतों एवं मुहावरों के अध्ययनार्थ दृष्टव्य है भारतीय कहावतें-लेखक प्रो० श्रीचन्द जैन, प्रकाशक, माणिक बुक डिपो, उज्जैन। २ दृष्टव्य वनवासी भील और उनकी संस्कृति । लेखक प्रो० श्रीचन्द जैन, प्रकाशक, रोशनलाल जैन जयपुर । ३ वन-वन घूमा बंजारा, लेखक प्रो० श्रीचन्द जैन-प्रकाशक, कला-प्रकाशन, दिल्ली। ४ डॉ० कन्हैयालाल सहल : कहावत की व्युत्पत्ति, 'दृष्टिकोण' पटना, जुलाई १९५५ ५ डॉ० रवीन्द्र भ्रमर : हिन्दी भक्ति-साहित्य में लोक-तत्व, पृ० १९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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