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________________ तृतीय खण्ड : गुरुदेव की साहित्य धारा २१७ . ०० फिर भी गोस्वामी जी ने अपने काव्य में नारी की भूरि-भूरि प्रशस्ति गाई है। पतिव्रता सदा प्रणम्य है । वह तो भारतीय संस्कृति की अविनश्वर निधि है। आधुनिक युग में कवियों की यह प्रबुद्ध वाणी हरेक मानस को नारी-श्रद्धा से पुलकित करती रहेगी : मुक्त करो नारी को मानव चिरबन्दिनि नारी को। युग-युग की वर्बर कारा से, जननि सखि, प्यारी को। --कविवर पंत नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पग तल में । पीयूष-स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में । -प्रसाद नर की जीवनसहचरी नारी को सदा ही विषाक्त रूप में देखना कहाँ तक उचित है ? सन्तों ने इस रमणीयता को मोहिनी रूप में देखा है, माया के रूप में ही झांका है, अतः विरक्ति की गहरी लीक कभी धूमिल न हो जाय, बस इसीलिए नारी, श्रमणों की दृष्टि में त्याज्य है, लेकिन सतियों की प्रशंसा में इन सन्तों ने कई महाकाव्य तक लिखे हैं। नारी की सहज प्रवृत्तियों के चित्रण में अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर मुनिजी की ये कतिपय कथा-पंक्तियाँ निश्चयतः मननीय हैं-लेकिन त्याग-साधना के संदर्भ में "हे सखी ! स्त्री को कभी भी निराधार नहीं रहना चाहिए । एकाकी स्त्री का जीवन सुरक्षित नहीं रहता। बचपन में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में पुत्र का आश्रय लेकर रहना ही स्त्री को उचित है। (जैन कथाएं भाग १६-विद्या-विलास कथा पृष्ठ १५६) राजा भर्तृहरि : योगी भर्तृहरि [जैन कथाएँ भाग २१] की सम्पूर्ण कथा छलना-प्रतीक महारानी की चरित्रहीनता की चिरपरिचित गाथा है। रानी की इस चारित्रिक शिथिलता ने ही राजा को विरक्ति के पथ का सुदृढ़ पथिक बनाया था। "नारी तेरे रूप अनेक हैं। सौभाग्यसुन्दरी और रुक्मिणी भी तू ही है और सुरूपा भी तू ही है। नीतिकारों ने ठीक ही कहा है कि घोड़ों की चाल, वैशाख की मेघगर्जना, स्त्रियों का चरित्र, भाग्य की कर्म-रेखा, अनावृष्टि, और अतिवृष्टि,- इनका भेद देवता भी नहीं जानते, मनुष्य की तो गणना ही क्या है ? अथाह और अपार समुद्र को पार किया जा सकता है, किन्तु स्वभाव से ही कुटिल स्वभाव वाली स्त्रियों को पार पाना महाकठिन है। (दृष्टव्य, नारी तेरे रूप अनेक-जन कथाएँ भाग २३, पृष्ठ १९८) लेकिन समुद्र की थाह पानेवाले भी क्या स्त्री के पेट की थाह पा सकते हैं ? स्त्री के मोहताश में बंधा मनुष्य जहर को अमृत समझकर पीता है । स्त्रियों की रचना करके विधाता भी उसके चरित्र को नहीं जान पाया, फिर भला मैं किस गिनती मैं हूँ । स्त्रियाँ मनुष्यों के हृदय में प्रविष्ट होकर मोह, मद, अहंकार उत्पन्न करती हैं। (अमरफल, जैनकथाएँ भाग २१, पृष्ठ १९) त्रिया चरित्र की गहराई को त्रिया अच्छी तरह जानती है। पुरुष समुद्र की थाह पा सकता है, पर स्त्री के पेट की थाह नहीं पा सकता। कितनी ही स्त्रियां पातिव्रत्य की चादर ओढ़कर आज भी अपने पतियों को धोखा दे रही हैं। -बात में बात कहानी में कहानी, पृष्ठ १०६ जन कथाएँ भाग ४ नारी के विविध नामों की सार्थकता के साथ इसे देखने के कई नजरिए यहाँ उपलब्ध हैं। धार्मिकता, सामाजिकता एवं राष्ट्रीयता का समन्वय है । संसार के चित्र संसार के अर्थ हैं-(१) जगत, दुनिया। (२) इहलोक, मर्त्यलोक । (३) घर (४) मार्ग, रास्ता । (५) सांसारिक जीवनचक्र, धर्मनिरपेक्ष जीवन, लौकिक जिन्दगी। (६) आवागमन, जन्मान्तर, जन्म परम्परा । (७) सांसारिक भ्रम आदि (संस्कृत-हिन्दी कोश श्री वामन शिवराम आप्टे पृष्ठ १०५०) वस्तुतः जीवन की संग्राम-स्थली को संसार कहा जाय तो उचित ही है। यह कर्म-भूमि है और पुण्यपाप-भूमि भी है। मानव इसी संसार में रहकर अध्यात्मवाद के सहारे आत्मोन्नति करता हुआ मोक्ष प्राप्त करता है तथा यहीं रहकर वह विषय-वासना में लीन होकर नरकादि के दुःखों को सहता है। माया संसार है, कपट संसार हैं, द्रोह-मात्सर्य आदि संसार है, आशा तृष्णादि संसार है। यह बालू की भीत के समान अस्थिर व विद्य त-ज्योति की भाँति लुभावना होकर भी क्षणिक है। सांसारिक ममता से विमुक्त होकर ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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