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________________ २१२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन अन्य का निर्वाचन हो गया, सो हो गया । किन्तु वे मन्त्रिमण्डल में सम्मिलित न किए जाने पर भी, गण और पद के निर्वाचन में वे सदस्य जिस प्रकार उपादेय होते हैं, ठीक उसीप्रकार ये गणव्यतिरेक और पद के परिवर्तन भी काव्य की सृष्टि में उपादेय प्रतीत होते हैं। भाव अधिक स्पष्ट है । अतएव अध्ययन में रुचि होती है और उत्तरोत्तर जिज्ञासा भी विवृद्ध होती रहती है । इसका अर्थ यह है कि किसी प्रकार के बौद्धिक व्यायाम की आवश्यकता प्रतीत नही होती। क्योंकि सरल-सरस और प्रयुक्त शब्दों के वाक्यों की रचना सब से अधिक है। किन्तु वर्णन में व्यङ्गय अर्थ स्वतः प्रस्फुटित होने लगता है, यह बात इस काव्य में विशेषरूप से परिज्ञात होती है। क्योंकि व्यंग्यार्थ प्रधान काव्य उत्तमकाव्य समझा जाता है। इस काव्य में प्रसाद गुण का आधिक्य है। शान्त रस का यह काव्य है, किन्तु प्रसङ्गात् अन्य रस भी सहायक हैं। इस विषय पर मैं-उद्धरण प्रस्तुत करना, इसलिये उपयुक्त नहीं मानता, कि मुझे आपकी योग्यता पर, अपनी योग्यता से अधिक विश्वास है। साथ ही विषय भी सरल नहीं है। यहां पर मैं पण्डित रामचन्द्र जी शुक्ल के 'चिन्तामणि' ग्रन्थ का नाम इसलिये ले रहा हूँ कि उससे यह तथ्य प्रकट हो।। अलङ्कार अर्थ के चमत्कार को प्रकट करता है। किन्तु वह स्वाभाविक रूप से अर्थ के साथ घुलमिल कर जब प्रकट होता है, तब वास्तव में अर्थ में एक चमत्कार प्रतीत होता है। साथ ही यह भी बात निश्चित है कि प्रत्येक भाषा के प्रयोग में अलङ्कार अवश्य होते हैं। यह बात दूसरी है कि हम उनसे परिचित नहीं हैं। अत: इस काव्य में स्वाभाविक रूप में अनेक अलङ्कार प्रयुक्त हुए हैं अथवा स्वतः समाविष्ट हो गये हैं। जैसे कि उत्प्रेक्षा के लिए मुनिश्रीजी ने वर्णन करते हुए कितनी सुन्दर कल्पना की है कि संसार में जगत् को आश्चर्य में डालने वाला ब्रह्मचर्य भी कुछ कम नहीं है। क्योंकि ब्रह्मचर्य को देखकर सुन्दर रूप स्वयं लज्जित होकर तिनके तोड़ने लगता है । किन्तु अपने अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए ऐसा लगता है कि मानो वह इस ब्रह्मचर्य के सामने नाचता हो । बह्वाश्चर्यं जगति तनुते ब्रह्मचर्य प्रशस्तम्, यस्योत्कर्ष भुवनविदितं कोऽपि वक्त न शक्तः । रम्यं रूपं स्पृशति तृणकं लज्जमानं परन्तु, स्वस्यास्तित्वं कथमपि धरन्नृत्यतीदं तदने। यहाँ कैसी स्वाभाविक मनोवृत्ति का चित्रण है । क्योंकि जो जिसकी विशेषता से आकृष्ट होता है, वह व्यक्ति उसकी विशेषता का वर्णन किये बिना नहीं रहता। ठीक इसी मनोभावना को एक ऐसे आकर्षक ढंग से वर्णन कर मुनिश्रीजी ने कल्पना को एक सजीव चित्र के रूप में चित्रित कर रूप की स्थिति की उत्प्रेक्षा में जीवन पैदा कर दिया है। इस वर्णन से एक लोकोक्ति को व्यङ्गार्थ से किस प्रकार चित्रित किया है यह देखते ही बनता है, झेंपकर व्यक्ति किंकर्तव्यविमूढ होकर तिनके तोड़ने लगता है । वर्णन के वैशिष्ट्य की चमत्कृति के एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। केवल परिचय के हेतु यहाँ संकेतमात्र ही प्रस्तुत है। किसी विचारक का विचारमात्र हो ऐसी बात नहीं है, किन्तु यह व्यावहारिक सत्य है कि मनुष्य जितना देवी विपदाओं से अथवा प्राकृतिक प्रकोपों से संसार में दुःखी नहीं है, उतना की वह इच्छाओं के वातचक्र से दुःखी हो उठता है। यह बात मुनिश्रीजी ने कितने स्पष्ट रूप में व्यक्त की है, देखिए इच्छाबद्धः विकृतहृदयश्चिन्तया पोडितोऽयम्, श्रेष्ठं वस्तु प्रभवति सदा स्वात्मने निग्रहीतुम् । सर्वस्वं मे भवतु निखिलं सर्वथैवं विचिन्वन्, स्वार्थी जीवो ग्रहणनिरतः जायते दुःखदग्धः । __यहाँ पर स्वार्थी अथवा लोभी की वृत्ति का परिकरवृत्ति से वर्णन कर मुनिश्रीजी ने निदर्शन किया है कि स्वार्थी स्वत: ही दुःखी रहता है । क्योंकि संसार में सब इच्छाएं पूर्ण हों, यह कभी सम्भव नहीं है। इसलिए परिग्रह स्वयं ही दुःख का कारण है । अतः इससे दूर रहना चाहिए । फिर जो जानबूझकर परिग्रह की धारा में बह रहे हैं, उनके दुःखों का तो कोई ओर है, न छोर है। अतः परिग्रह से दूर रहिए, यदि जगत में रहकर आनन्द का अनुभव करना चाहते हो तो । व्यंग्यार्थ से स्पष्ट कर रहे हैं कि इसीलिए मुनिजन जीवन को निश्चिन्त बनाने के लिए परिग्रह नहीं रखते । अतएव वे निश्चिन्त रहते हैं, और स्वयं में सन्तुष्ट रहते हैं। ० ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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